hotaks444
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वहाँ कुछ देर खड़ा रहने के पश्चात मैं अपने कमरे में चला गया. मैने बत्ती बंद की और चादर लेकर बेड पर सोने की कोशिश मैं करवटें बदलने लगा. मेरी आँखो मैं नींद का कोई नामोनिशान नही था मगर मैं जागना भी नही चाहता था.
उस वक़्त रात काफ़ी गुज़र चुकी होगी जब मैने दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनी. पहले पहल तो मैने ध्यान नही दिया, मुझे लगा मेरा वहम था मगर तीसरी बार दस्तक होने पर मुझे जबाब देना पड़ा. मुझे नही मालूम था अगर मुझे कमरे में अंधेरा ही रहने देना चाहिए या बेड के साथ लगे साइड लंप को जला देना चाहिए. मैं उठ गया और उसे बोला, "हां माँ, आ जाओ"
उसने धीरे से दरवाजा खोला और धीरे से फुसफसाई " अभी तक जाग रहे हो?"
"हां माँ, मैं जाग रहा हूँ. अंदर आ जाओ" मुझे लगा उन हालातों में लाइट्स बंद रखना मुनासिब नही था. इसीलिए मैने बेड की साइड स्टॅंड की लाइट जला दी.
वो एक गाउन पहने थी जो उसे सर से पाँव तक ढके हुए था---ऐसा उसने आज पहली बार किया था. मैं चाह कर भी खुद को वश में ना रख सका और गाउन का बारीकी से मुयाना करने लगा मगर मेरे हाथ निराशा लगी. उसने जानबूझ कर वो गाउन पहना था जिसने उसका पूरा बदन ढक दिया था और मुझे उसके चेहरे के सिवा कुछ भी नज़र नही आ रहा था. मैं आश्चर्याचकित था कि आख़िर उसको ऐसा करने की क्या ज़रूरत थी. शायद मेरे लिए उसमे एक गेहन इशारा, एक ज़ोरदार संदेश छिपा हुया था.
उसने मेरी कंप्यूटर वाली कुर्सी ली और उस पर थोड़े वक़्त के लिए बैठ गयी. उसकी नज़रें उसके पाँवो पर जमी हुई थी, वो उन अल्फाज़ों को ढूँढने का प्रयास कर रही थी जिनसे वो अपनी बात की शुरूआर् कर सकती. मैं चुपचाप उसे देखे जा रहा था, इस विचार से ख़ौफज़दा कि वो मुझे यही बताने आई थी कि हमें सब कुछ बंद करना पड़ेगा.
वो खामोशी आसेहनीय थी.
अंततः, बहुत लंबे समय बाद, उसने खांस कर अपना गला सॉफ किया और बोली: "क्या तुम मुझसे नाराज़ हो?"
मैं, असल में उसके सवाल से थोड़ा हैरत में पड़ गया था और मैने उसे जल्दी से जबाव दिया कि मैं उससे नाराज़ नही था. मगर जवाब देने से पहले मैं सोचने के लिए एक पल रुका. मैं असमंजस में था कि वो यह क्यों सोच रही है कि मैं उससे नाराज़ हूँ जबके मैं इस सारे घटनाक्रम के समय यही सोच सोच कर परेशान था कि वो मुझसे नाराज़ होगी. आख़िरकार वो मेरा लंड था जो उसके जिस्म पर चुभा था, जिसने मेरी उन कामुक भावनाओ को उजागर कर दिया था जो उसके लिए मेरे मन में थी. और इस पर भी वो मुझसे पूछ रही थी कि कहीं मैं उससे नाराज़ तो नही था जैसे उसने मेरे साथ कुछ बुरा कुछ ग़लत किया था.
आख़िरकार मैं बोला : "नाराज़? नही माँ मैं तुमसे बिल्कुल भी नाराज़ नही हूँ" इसके साथ ही मैने यह भी जोड़ दिया "भला मैं तुमसे नाराज़ क्यों होयुंगा?"
"मुझे लगा, मुझे लगा शायद .........." उसने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया. मैं उसकी परेशानी की वजह समझ गया था. उसके मन मैं ज़रूर कुछ और भी था और मैं जानना चाहता था कि वो क्या था.
"शायद क्या माँ?" मैने उसे उकसाया.
वो कुछ पल सोचती रही और फिर एक गहरी साँस लेकर तपाक से बोली: "मुझे लगा.......जो कुछ हमारे बीच कुछ समय पहले हुआ तुम उसको लेकर मुझसे नाराज़ होगे"
"मगर मैं नाराज़ क्यों होउंगा?" मैं अभी भी असमंजस में था. जहाँ तक मैं जानता था उसमे हम दोनो की रज़ामंदी शामिल थी.
"मुझे लगा शायद मैं हद से कुछ ज़यादा ही आगे बढ़ गयी थी जब हम ने गुडनाइट कहा था"
मैने उसके अंदर गहराई में झाँकने की कोशिश की. वो सिरफ़ अपने बर्ताव के बारे में सोच रही थी. उसे खुद से कुछ ग़लत हो जाने का भय सता रहा था. मुझे लगा वो मेरे लंड की अपने बदन पर चुभन के बारे में सोच भी नही रही थी, ना ही इस बात के बारे में कि मैने भी उसे उतनी ही तम्माना से चूमा था जितनी तमन्ना से उसने मुझे. वो सिर्फ़ अपने चूमने के बारे में सोच रही थी, जैसे ये सब पूरी तरह से एकतरफ़ा था, जैसे हमारे प्रेम संबंध में सिर्फ़ वोही हिस्सा ले रही थी.
"क्या मतलब कि तुम हद से आगे बढ़ गयी थी" मैने जानबूझकर अंजान बनते हुए पूछा. मेरे लिए यह बात बहुत राहत देने वाली थी कि वो खुद को कसूरवार ठहरा रही थी और मुझ पर कोई दोष नही मढ़ रही थी. मुझे लगा स्थिती मेरे नियनतरण में है क्योंकि वो रक्षात्मक मुद्रा में थी जबके मुझे अब डरने की कोई ज़रूरत नही थी जैसा मैं पहले सोचे बैठा था.
वो दूबिधा में थी. मुझे अच्छी तरह से मालूम था वो किस बारे में बात कर रही है मगर मैं उसके मुख से सुनना चाहता था कि उसका इशारा किस ओर है.
वो कुछ देर तक अपने जवाब के बारे में सोचती रही. अचानक से वो बहुत पस्त ब थकि हुई नज़र आने लगी. वो उस कुर्सी पर चुपचाप बैठी अपने पावं को देखे जा रही थी और उसके हाथ दोनो बगलों से कुर्सी को कस कर पकड़े हुए थे.
खामोशी के वो कुछ पल कुछ घंटो के बराबर थे, उसने अपना चेहरा उपर उठाया और मेरी ओर देखा; “क्या यह संभव है कि तुम वाकाई में नही जानते मैं किस बारे में बात कर रही हूँ?!”
“क्या यह संभव है कि तुम वाकाई में नही जानते मैं किस बारे मैं बात कर रही हूँ?!”
मैने उसे देखा और वो मुझे देख रही थी. उसकी आँखे में बहुत गंभीरता थी. बल्कि मुझे उसकी आँखो मैं एक अंजना डर भी नज़र आया. उसे डर था कि वो उस बात को बहुत बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रही है, जबके मैं इस बात से अंजान था कि हमारे बीच क्या चल रहा है. दूसरे लफ़्ज़ों में कहिए तो, वो उस मुद्दे को तूल दे रही थी जिसे छेड़ने की उसे कोई आवश्यकता नही थी. मैं देख सकता था कि उसे अपनी सांसो पर काबू रखने में दिक्कत हो रही थी.
मैं उस सवाल का जवाब नही देना चाहता था. मगर अब जब उसने सवाल पूछा था तो मुझे जवाब देना ही था. “मैं जानता हूँ तुम किस बारे में बात कर रही हो.” मैने बिना कुछ और जोड़े बात को वहीं तक सीमित रखा.
वो चुपचाप बैठी थी, बॅस सोचती जा रही थी. उसके माथे की गहरी शिकन बता रही थी कि वो कितनी गहराई से सोच रही थी. वो किसी विचार को जाँच रही थी मगर उसे कह नही पा रही थी. वो उसे कहने के सही लफ़्ज़ों को ढूँढने की कोशिश कर रही थी. आख़िरकार, उसने एक गहरी साँस ली ताकि अपने दिल की धड़कनो को काबू कर सके और चेहरे पर अपार गंभीरता लिए मुझे पूछा: “तो बताओ मैं किस बारे में बात कर रही थी?”
उस वक़्त रात काफ़ी गुज़र चुकी होगी जब मैने दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनी. पहले पहल तो मैने ध्यान नही दिया, मुझे लगा मेरा वहम था मगर तीसरी बार दस्तक होने पर मुझे जबाब देना पड़ा. मुझे नही मालूम था अगर मुझे कमरे में अंधेरा ही रहने देना चाहिए या बेड के साथ लगे साइड लंप को जला देना चाहिए. मैं उठ गया और उसे बोला, "हां माँ, आ जाओ"
उसने धीरे से दरवाजा खोला और धीरे से फुसफसाई " अभी तक जाग रहे हो?"
"हां माँ, मैं जाग रहा हूँ. अंदर आ जाओ" मुझे लगा उन हालातों में लाइट्स बंद रखना मुनासिब नही था. इसीलिए मैने बेड की साइड स्टॅंड की लाइट जला दी.
वो एक गाउन पहने थी जो उसे सर से पाँव तक ढके हुए था---ऐसा उसने आज पहली बार किया था. मैं चाह कर भी खुद को वश में ना रख सका और गाउन का बारीकी से मुयाना करने लगा मगर मेरे हाथ निराशा लगी. उसने जानबूझ कर वो गाउन पहना था जिसने उसका पूरा बदन ढक दिया था और मुझे उसके चेहरे के सिवा कुछ भी नज़र नही आ रहा था. मैं आश्चर्याचकित था कि आख़िर उसको ऐसा करने की क्या ज़रूरत थी. शायद मेरे लिए उसमे एक गेहन इशारा, एक ज़ोरदार संदेश छिपा हुया था.
उसने मेरी कंप्यूटर वाली कुर्सी ली और उस पर थोड़े वक़्त के लिए बैठ गयी. उसकी नज़रें उसके पाँवो पर जमी हुई थी, वो उन अल्फाज़ों को ढूँढने का प्रयास कर रही थी जिनसे वो अपनी बात की शुरूआर् कर सकती. मैं चुपचाप उसे देखे जा रहा था, इस विचार से ख़ौफज़दा कि वो मुझे यही बताने आई थी कि हमें सब कुछ बंद करना पड़ेगा.
वो खामोशी आसेहनीय थी.
अंततः, बहुत लंबे समय बाद, उसने खांस कर अपना गला सॉफ किया और बोली: "क्या तुम मुझसे नाराज़ हो?"
मैं, असल में उसके सवाल से थोड़ा हैरत में पड़ गया था और मैने उसे जल्दी से जबाव दिया कि मैं उससे नाराज़ नही था. मगर जवाब देने से पहले मैं सोचने के लिए एक पल रुका. मैं असमंजस में था कि वो यह क्यों सोच रही है कि मैं उससे नाराज़ हूँ जबके मैं इस सारे घटनाक्रम के समय यही सोच सोच कर परेशान था कि वो मुझसे नाराज़ होगी. आख़िरकार वो मेरा लंड था जो उसके जिस्म पर चुभा था, जिसने मेरी उन कामुक भावनाओ को उजागर कर दिया था जो उसके लिए मेरे मन में थी. और इस पर भी वो मुझसे पूछ रही थी कि कहीं मैं उससे नाराज़ तो नही था जैसे उसने मेरे साथ कुछ बुरा कुछ ग़लत किया था.
आख़िरकार मैं बोला : "नाराज़? नही माँ मैं तुमसे बिल्कुल भी नाराज़ नही हूँ" इसके साथ ही मैने यह भी जोड़ दिया "भला मैं तुमसे नाराज़ क्यों होयुंगा?"
"मुझे लगा, मुझे लगा शायद .........." उसने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया. मैं उसकी परेशानी की वजह समझ गया था. उसके मन मैं ज़रूर कुछ और भी था और मैं जानना चाहता था कि वो क्या था.
"शायद क्या माँ?" मैने उसे उकसाया.
वो कुछ पल सोचती रही और फिर एक गहरी साँस लेकर तपाक से बोली: "मुझे लगा.......जो कुछ हमारे बीच कुछ समय पहले हुआ तुम उसको लेकर मुझसे नाराज़ होगे"
"मगर मैं नाराज़ क्यों होउंगा?" मैं अभी भी असमंजस में था. जहाँ तक मैं जानता था उसमे हम दोनो की रज़ामंदी शामिल थी.
"मुझे लगा शायद मैं हद से कुछ ज़यादा ही आगे बढ़ गयी थी जब हम ने गुडनाइट कहा था"
मैने उसके अंदर गहराई में झाँकने की कोशिश की. वो सिरफ़ अपने बर्ताव के बारे में सोच रही थी. उसे खुद से कुछ ग़लत हो जाने का भय सता रहा था. मुझे लगा वो मेरे लंड की अपने बदन पर चुभन के बारे में सोच भी नही रही थी, ना ही इस बात के बारे में कि मैने भी उसे उतनी ही तम्माना से चूमा था जितनी तमन्ना से उसने मुझे. वो सिर्फ़ अपने चूमने के बारे में सोच रही थी, जैसे ये सब पूरी तरह से एकतरफ़ा था, जैसे हमारे प्रेम संबंध में सिर्फ़ वोही हिस्सा ले रही थी.
"क्या मतलब कि तुम हद से आगे बढ़ गयी थी" मैने जानबूझकर अंजान बनते हुए पूछा. मेरे लिए यह बात बहुत राहत देने वाली थी कि वो खुद को कसूरवार ठहरा रही थी और मुझ पर कोई दोष नही मढ़ रही थी. मुझे लगा स्थिती मेरे नियनतरण में है क्योंकि वो रक्षात्मक मुद्रा में थी जबके मुझे अब डरने की कोई ज़रूरत नही थी जैसा मैं पहले सोचे बैठा था.
वो दूबिधा में थी. मुझे अच्छी तरह से मालूम था वो किस बारे में बात कर रही है मगर मैं उसके मुख से सुनना चाहता था कि उसका इशारा किस ओर है.
वो कुछ देर तक अपने जवाब के बारे में सोचती रही. अचानक से वो बहुत पस्त ब थकि हुई नज़र आने लगी. वो उस कुर्सी पर चुपचाप बैठी अपने पावं को देखे जा रही थी और उसके हाथ दोनो बगलों से कुर्सी को कस कर पकड़े हुए थे.
खामोशी के वो कुछ पल कुछ घंटो के बराबर थे, उसने अपना चेहरा उपर उठाया और मेरी ओर देखा; “क्या यह संभव है कि तुम वाकाई में नही जानते मैं किस बारे में बात कर रही हूँ?!”
“क्या यह संभव है कि तुम वाकाई में नही जानते मैं किस बारे मैं बात कर रही हूँ?!”
मैने उसे देखा और वो मुझे देख रही थी. उसकी आँखे में बहुत गंभीरता थी. बल्कि मुझे उसकी आँखो मैं एक अंजना डर भी नज़र आया. उसे डर था कि वो उस बात को बहुत बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रही है, जबके मैं इस बात से अंजान था कि हमारे बीच क्या चल रहा है. दूसरे लफ़्ज़ों में कहिए तो, वो उस मुद्दे को तूल दे रही थी जिसे छेड़ने की उसे कोई आवश्यकता नही थी. मैं देख सकता था कि उसे अपनी सांसो पर काबू रखने में दिक्कत हो रही थी.
मैं उस सवाल का जवाब नही देना चाहता था. मगर अब जब उसने सवाल पूछा था तो मुझे जवाब देना ही था. “मैं जानता हूँ तुम किस बारे में बात कर रही हो.” मैने बिना कुछ और जोड़े बात को वहीं तक सीमित रखा.
वो चुपचाप बैठी थी, बॅस सोचती जा रही थी. उसके माथे की गहरी शिकन बता रही थी कि वो कितनी गहराई से सोच रही थी. वो किसी विचार को जाँच रही थी मगर उसे कह नही पा रही थी. वो उसे कहने के सही लफ़्ज़ों को ढूँढने की कोशिश कर रही थी. आख़िरकार, उसने एक गहरी साँस ली ताकि अपने दिल की धड़कनो को काबू कर सके और चेहरे पर अपार गंभीरता लिए मुझे पूछा: “तो बताओ मैं किस बारे में बात कर रही थी?”