desiaks
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- Aug 28, 2015
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#56
सच कहू तो दिन से ज्यादा मेरे साथ ये राते थी, बहुत समय से जो इन रातो में मैं भटक रहा था लगता था की अब तो जैसे याराना हो गया है इनके साथ , कितने खूबसूरत पल मैंने मेघा के साथ ऐसी ही रातो में बिताये थे , तो कभी प्रज्ञा के साथ, लगता था की मेरे जीवन में तीसरी कोई थी तो बस ये राते.
दिमाग में ऐसे ही विचार लिए मैं रतनगढ़ पहुच चूका था , मंदिर के आस पास कोई नहीं था शायद प्रज्ञा ने लोगो को हटा दिया होगा, टूटी सीढिया चढ़ते हुए मैं ऊपर गया, और प्रज्ञा का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर बाद वो भी आ गयी.
प्रज्ञा- आ गए
मैं- तुम्ही लेट हो
वो- कोई बात नहीं, आओ
हम मूर्ति के पास आये.
प्रज्ञा- देखो, मूर्ति को इसने हैरान किया हुआ है
मैंने मूर्ति को हाथ लगाया, ताकत लगाई वो टस से मस नहीं हुई . मेरे लिए भी ये नयी बात थी .
प्रज्ञा- अब बताओ क्या करे,
मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया , मेरे दिमाग में उथल पुथल मची थी,
मैं- प्रज्ञा, आन लगी है मूर्ति पर, कुछ छिपा है , कोई राज़
प्रज्ञा- पर मालूम कैसे हो
मुझे याद आया कैसे मेरे खून से वो दीपक जल उठा था, और यही बात इस मंदिर की भी थी , यहाँ पर भी कभी दीप नहीं जलता था .
मैं- कोई दीप तलाश करो ,
जल्दी ही हमें वो मिल गया मैंने अपने खून से उसे भरा और जलाया पर बेकार, काम नहीं बना
प्रज्ञा- क्या था ये
मैं- एक तरीका पर कामयाब नहीं हुआ , मुझे लगा था की मेरे खून से काम बन जाना चाहिए था , पर क्यों नहीं बना
मैं बस एक अंदाजा लगा सकता था , और अंदाजा विफल हो गया था , मैंने दिमाग पर जोर डाला, वहां मेरे खून से तुरंत दिया जल गया था , क्या कहा मेरे खून से ,नहीं मेरे खून के साथ मेघा का खून भी मिला था शायद. क्योंकि वो लथपथ थी खून से
प्रज्ञा- क्या सोचने लगे,
मैं- एक थ्योरी है बल्कि यूँ कहू की एक तुक्का , क्या पता काम हो जाये पर मुझे तुम्हारी मदद चाहिए
प्रज्ञा- हाँ जो तुम कहो
मैं- इस दीपक में तुम्हारे खून की कुक बूंदे मिलाओ
प्रज्ञा ने अपना हाथ आगे किया , मैंने उसे बालो से क्लिप निकाली और ऊँगली में चुभो दी, खून की बूंदे जैसे ही मेरे खून से मिली, चिंगारी जलने लगी.
मैं- आन टूट रही है , जोड़े की आन थी .
प्रज्ञा- समझी नहीं
मैं-रुको जरा
मैंने वो दिया माता के चरणों में रखा और फिर जैसे ही मूर्ति को छुआ वो सरक गयी, अपना स्थान छोड़ दिया उसने
प्रज्ञा को जैसे अपनी आँखों पर यकीं नहीं हुआ
“ये कैसे हुआ कबीर, ” उसने सवाल किया
मैं- इन सब घटनाओ से मेरा कोई न कोई रिश्ता है, और तुम्हारा मुझसे सम्बन्ध है, जोड़े की आन से तात्पर्य है की तुम्हारा और मेरा रिश्ता हम भी एक दुसरे से जुड़े है , शायद हमारे जिस्मानी संबंधो की वजह से .
प्रज्ञा को इस बात पर यकीं नहीं था पर मुझे था क्योंकि मेघा मेरी पत्नी बन गयी थी इस लिए मैं उस से जुड़ा था और प्रज्ञा के साथ मैं सो चूका था, एक अनकहा रिश्ता तो इस से भी था ही
मैंने मूर्ति को हटा कर पास में रख दिया, तो देखा की एक चोर दरवाजा था .
मैं- टोर्च जलाओ हम इस के अन्दर जायेंगे
प्रज्ञा- दिन का समय सही रहता
मैं- नहीं अभी
मैंने वो छोटा सा ढक्कन हटाया देखा निचे जाने को सीढिया थी , हम उतरने लगे, सीढिया धीरे धीरे कम होने लगी, चारो तरफ जाले लगे थे, सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी थी पर फिर भी हम चल रहे थे फिर हम एक कमरे में पहुचे, टोर्च की रौशनी में हमने देखा ,
हमने देखा यहाँ खूब सोना पड़ा था ,एक पल को हम दोनों की आँखे चुंधिया गयी, चमक से नहीं बल्कि ये सोच कर की इतना सारा सोना इधर उधर बिखरे पड़े थे बिना किसी बात के
प्रज्ञा- अरे बाप रे
मैं - कौन था इतना अमीर
प्रज्ञा- कबीर, ये सोना वैसा नहीं है जो तुमने मुझे दिखाया था ये इस्तेमाल किया हुआ है देखो इसके आकर को, बनावट से लगता है की जैसे पिघला कर ठंडा किया हो इसे
मैं- हाँ, सही कहा तुमने
मैंने कमरे का विश्लेषण करना शुरू किया ,ये तो तय था की मुद्दतो बाद हम ही आये थे इधर , पर इसका क्या प्रयोजन था , पहले के लोग ऐसे तहखानो में खजाना आदि छुपाते थे पर यहाँ मामला कुछ और था , क्योंकि छुपाने वाले कभी न कभी लौटते जरुर है पर हमारे मामले में जैसे भुला दिया गया था , परवाह ही नहीं की गयी थी इस माल की .
“तुम्हे कुछ सुनाई दे रहा है कबीर. ” प्रज्ञा ने पूछा
मैं- क्या
वो- पानी की आवाज
मैं- तालाब है तो सही पास में
प्रज्ञा- नहीं, गौर से सुनो तुम बहते पानी की आवाज महसूस करोगे.
मैं- नहर यहाँ से कोसो दूर है , और नदी है नहीं
प्रज्ञा- पर पानी है कबीर , मेरा यकीं करो ये आवाजे बहते पानी की ही है
मैं- ठीक है पर कहाँ है नदी , अपने चारो तरफ तो दीवारे है
प्रज्ञा- तलाश करते है क्या मालूम ऐसा कोई और चोर दरवाजा भी हो.
हम बारीकी से कमरे की जांच करने लगे. पर तभी प्रज्ञा का फ़ोन बजा , उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया और बोली- हाँ , कहाँ है आप.
उसने सुना .
प्रज्ञा- हाँ थोड़ी बेचैन थी तो मंदिर आ गयी थी, आप रुकिए मैं आती हु
उसने फ़ोन रखा
“राणाजी वापिस आ गए है , मेरी गाड़ी देख ली थी उन्होंने तो फ़ोन किया , जाना होगा ” उसने कहा
मैं- संभाल लोगी न
वो- हाँ बिलकुल.
मैं- मैं यही छानबीन करूँगा तुम मूर्ति को उसके स्थान पर रख देना ताकि किसी और को मालूम न हो
उसने हाँ में सर हिलाया और मुड गयी, मैं वापिस से अपने काम पर लग गया , तीसरी दिवार पर मुझे सफलता मिली , दिवार का एक हिस्सा खोखला था मैंने कोशिश की और वो हिस्सा खिसक गया . आगे अँधेरा ही अँधेरा था मैंने टोर्च को सामने किया और चलने लगा. ठंडी हवा को महसूस करते हुए मैंने पाया की मैं जल्दी ही शायद जंगल के किसी हिस्से में पहुँचने वाला हु. और जब मुझे साफ़ साफ दिखाई दिया तो ...................
सच कहू तो दिन से ज्यादा मेरे साथ ये राते थी, बहुत समय से जो इन रातो में मैं भटक रहा था लगता था की अब तो जैसे याराना हो गया है इनके साथ , कितने खूबसूरत पल मैंने मेघा के साथ ऐसी ही रातो में बिताये थे , तो कभी प्रज्ञा के साथ, लगता था की मेरे जीवन में तीसरी कोई थी तो बस ये राते.
दिमाग में ऐसे ही विचार लिए मैं रतनगढ़ पहुच चूका था , मंदिर के आस पास कोई नहीं था शायद प्रज्ञा ने लोगो को हटा दिया होगा, टूटी सीढिया चढ़ते हुए मैं ऊपर गया, और प्रज्ञा का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर बाद वो भी आ गयी.
प्रज्ञा- आ गए
मैं- तुम्ही लेट हो
वो- कोई बात नहीं, आओ
हम मूर्ति के पास आये.
प्रज्ञा- देखो, मूर्ति को इसने हैरान किया हुआ है
मैंने मूर्ति को हाथ लगाया, ताकत लगाई वो टस से मस नहीं हुई . मेरे लिए भी ये नयी बात थी .
प्रज्ञा- अब बताओ क्या करे,
मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया , मेरे दिमाग में उथल पुथल मची थी,
मैं- प्रज्ञा, आन लगी है मूर्ति पर, कुछ छिपा है , कोई राज़
प्रज्ञा- पर मालूम कैसे हो
मुझे याद आया कैसे मेरे खून से वो दीपक जल उठा था, और यही बात इस मंदिर की भी थी , यहाँ पर भी कभी दीप नहीं जलता था .
मैं- कोई दीप तलाश करो ,
जल्दी ही हमें वो मिल गया मैंने अपने खून से उसे भरा और जलाया पर बेकार, काम नहीं बना
प्रज्ञा- क्या था ये
मैं- एक तरीका पर कामयाब नहीं हुआ , मुझे लगा था की मेरे खून से काम बन जाना चाहिए था , पर क्यों नहीं बना
मैं बस एक अंदाजा लगा सकता था , और अंदाजा विफल हो गया था , मैंने दिमाग पर जोर डाला, वहां मेरे खून से तुरंत दिया जल गया था , क्या कहा मेरे खून से ,नहीं मेरे खून के साथ मेघा का खून भी मिला था शायद. क्योंकि वो लथपथ थी खून से
प्रज्ञा- क्या सोचने लगे,
मैं- एक थ्योरी है बल्कि यूँ कहू की एक तुक्का , क्या पता काम हो जाये पर मुझे तुम्हारी मदद चाहिए
प्रज्ञा- हाँ जो तुम कहो
मैं- इस दीपक में तुम्हारे खून की कुक बूंदे मिलाओ
प्रज्ञा ने अपना हाथ आगे किया , मैंने उसे बालो से क्लिप निकाली और ऊँगली में चुभो दी, खून की बूंदे जैसे ही मेरे खून से मिली, चिंगारी जलने लगी.
मैं- आन टूट रही है , जोड़े की आन थी .
प्रज्ञा- समझी नहीं
मैं-रुको जरा
मैंने वो दिया माता के चरणों में रखा और फिर जैसे ही मूर्ति को छुआ वो सरक गयी, अपना स्थान छोड़ दिया उसने
प्रज्ञा को जैसे अपनी आँखों पर यकीं नहीं हुआ
“ये कैसे हुआ कबीर, ” उसने सवाल किया
मैं- इन सब घटनाओ से मेरा कोई न कोई रिश्ता है, और तुम्हारा मुझसे सम्बन्ध है, जोड़े की आन से तात्पर्य है की तुम्हारा और मेरा रिश्ता हम भी एक दुसरे से जुड़े है , शायद हमारे जिस्मानी संबंधो की वजह से .
प्रज्ञा को इस बात पर यकीं नहीं था पर मुझे था क्योंकि मेघा मेरी पत्नी बन गयी थी इस लिए मैं उस से जुड़ा था और प्रज्ञा के साथ मैं सो चूका था, एक अनकहा रिश्ता तो इस से भी था ही
मैंने मूर्ति को हटा कर पास में रख दिया, तो देखा की एक चोर दरवाजा था .
मैं- टोर्च जलाओ हम इस के अन्दर जायेंगे
प्रज्ञा- दिन का समय सही रहता
मैं- नहीं अभी
मैंने वो छोटा सा ढक्कन हटाया देखा निचे जाने को सीढिया थी , हम उतरने लगे, सीढिया धीरे धीरे कम होने लगी, चारो तरफ जाले लगे थे, सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी थी पर फिर भी हम चल रहे थे फिर हम एक कमरे में पहुचे, टोर्च की रौशनी में हमने देखा ,
हमने देखा यहाँ खूब सोना पड़ा था ,एक पल को हम दोनों की आँखे चुंधिया गयी, चमक से नहीं बल्कि ये सोच कर की इतना सारा सोना इधर उधर बिखरे पड़े थे बिना किसी बात के
प्रज्ञा- अरे बाप रे
मैं - कौन था इतना अमीर
प्रज्ञा- कबीर, ये सोना वैसा नहीं है जो तुमने मुझे दिखाया था ये इस्तेमाल किया हुआ है देखो इसके आकर को, बनावट से लगता है की जैसे पिघला कर ठंडा किया हो इसे
मैं- हाँ, सही कहा तुमने
मैंने कमरे का विश्लेषण करना शुरू किया ,ये तो तय था की मुद्दतो बाद हम ही आये थे इधर , पर इसका क्या प्रयोजन था , पहले के लोग ऐसे तहखानो में खजाना आदि छुपाते थे पर यहाँ मामला कुछ और था , क्योंकि छुपाने वाले कभी न कभी लौटते जरुर है पर हमारे मामले में जैसे भुला दिया गया था , परवाह ही नहीं की गयी थी इस माल की .
“तुम्हे कुछ सुनाई दे रहा है कबीर. ” प्रज्ञा ने पूछा
मैं- क्या
वो- पानी की आवाज
मैं- तालाब है तो सही पास में
प्रज्ञा- नहीं, गौर से सुनो तुम बहते पानी की आवाज महसूस करोगे.
मैं- नहर यहाँ से कोसो दूर है , और नदी है नहीं
प्रज्ञा- पर पानी है कबीर , मेरा यकीं करो ये आवाजे बहते पानी की ही है
मैं- ठीक है पर कहाँ है नदी , अपने चारो तरफ तो दीवारे है
प्रज्ञा- तलाश करते है क्या मालूम ऐसा कोई और चोर दरवाजा भी हो.
हम बारीकी से कमरे की जांच करने लगे. पर तभी प्रज्ञा का फ़ोन बजा , उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया और बोली- हाँ , कहाँ है आप.
उसने सुना .
प्रज्ञा- हाँ थोड़ी बेचैन थी तो मंदिर आ गयी थी, आप रुकिए मैं आती हु
उसने फ़ोन रखा
“राणाजी वापिस आ गए है , मेरी गाड़ी देख ली थी उन्होंने तो फ़ोन किया , जाना होगा ” उसने कहा
मैं- संभाल लोगी न
वो- हाँ बिलकुल.
मैं- मैं यही छानबीन करूँगा तुम मूर्ति को उसके स्थान पर रख देना ताकि किसी और को मालूम न हो
उसने हाँ में सर हिलाया और मुड गयी, मैं वापिस से अपने काम पर लग गया , तीसरी दिवार पर मुझे सफलता मिली , दिवार का एक हिस्सा खोखला था मैंने कोशिश की और वो हिस्सा खिसक गया . आगे अँधेरा ही अँधेरा था मैंने टोर्च को सामने किया और चलने लगा. ठंडी हवा को महसूस करते हुए मैंने पाया की मैं जल्दी ही शायद जंगल के किसी हिस्से में पहुँचने वाला हु. और जब मुझे साफ़ साफ दिखाई दिया तो ...................