desiaks
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अगली शाम को आशा मैरिन ड्राइव पर समुद्र के बान्ध की दीवार पर उसी स्थान पर बैठी अशोक की प्रतीक्षा कर रही थी, जहां वह उसी दिन अशोक ने आज फोन पर उससे उसको वहीं प्रतीक्षा करने का अनुरोध किया था ।
लगभग छ: बजे अशोक आया ।
आज वह बेहद खुश नजर आ रहा था । वह आकर आशा की वगल में बेठ गया ।
“आज बहुत खुश हो ?” - आशा ने प्रश्न किया ।
“हां ।” - अशोक बोला - “बहुत खुश हूं आज मैं ।”
“आज तुमने मुझे, यहां आने के लिये क्यों कहा था ?”
“अभी बताता हूं ।” - और अशोक ने अपनी जेब में हाथ डाला और फिर बन्द मुट्ठी बाहर निकाली ।
“आज मैं तुम्हारे लिये एक चीज लाया हूं ।” - अशोक अपनी बन्द मुट्ठी आशा के सामने लाता हुआ बोला ।
“और वह चीज इस मुट्ठी में है ?”
“हां ।”
“क्या है ?”
“पहले वादा करो कि तुम उसे स्वीकार करोगी ?”
“पहले बताओ तो सही क्या है ?”
“नहीं, पहले वादा करो ।”
“अच्छा ।”
“क्या अच्छा ?”
“वादा करती हूं ।”
अशोक ने बन्द मुट्ठी उसके मुंह के सामने लाकर खोल दी । आशा के नेत्रों के सामने प्रकाश की किरणों सी फूट पड़ी । अशोक की हथेली पर एक नई नकोर अंगूठी चमचमा रही थी ।
“अंगूठी ।” - आशा के मुंह से बरबस निकल गया
“लाओ तुम्हें पहना दूं ।”
आशा ने अपना हाथ आगे नहीं बढाया ।
“देखो, तुमने वादा किया है ।”
आशा ने झिझकते हुये अपना बायां हाथ आगे बढा दिया ।
अशोक ने उसके हाथ की दूसरी उंगली में अंगूठी पहना दी ।
“कैसी है ?” - अशोक ने पूछा ।
“बहुत खूबसूरत है । कितने की होगी ?”
“पूरे पचास हजार की है ।” - अशोक बोला ।
“तुम्हारी एक एक आदत मेरी सहेली सरला से मिलती है । वह भी हर चीज की कीमत हमेशा नये पैसों में बताती है । कहती है कि मोटी मोटी रकमों का नाम लेने में बड़ा मजा आता है और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव की वजह से मन में बड़ी ऊंचे दर्जे की इच्छायें पैदा होती हैं । तुम भी क्या इसीलिये पांच सौ रूपयों को पचास हजार कह रहे हो ?”
अशोक केवल मुस्कराया ।
“लेकिन पांच सौ रुपये में तो बड़ी महंगी अंगूठी है यह ।”
“आशा, शायद मेरी यह आदत तुम्हारी सरला से नहीं मिलती ।” - अशोक सहज स्वर से बोला - “यह अंगूठी पचास हजार रुपये की है ।”
“क्यों मजाक कर रहे हो ?” - आशा हंसती हुई बोली ।
“यह असली हीरे की अंगूठी है ।”
आशा की हंसी में एकदम ब्रेक लग गई । अशोक गम्भीर था । उसने एक बार अपनी उंगली में जगमगाती हुई अंगूठी को देखा, फिर अशोक के धीर गम्भीर चेहरे की ओर देखा और फिर अविश्वासपूर्ण स्वर से बोली - “नहीं ।”
“आशा ।” - एकाएक अशोक बान्ध पर से नीचे फुटपाट पर उत्तर गया - “तुम यहीं ठहरो । मैं अभी एक मिनट में आता हूं ।”
“कहां जा रहे हो ?”
“अभी आकर बताता हूं ।” - अशोक बोला - “आज मैं एक बहुत बड़े झूठ पर से पर्दा उठाने वाला हूं ।”
अशोक आगे बढा गया । फिर वह सड़क पार करके मैरिन ड्राइव की विशाल इमारतों की कतार में कहीं खो गया ।
आशा परेशान सी वहीं बैठी रही । रह रह कर उसकी दृष्टि अंगूठी की ओर उठ जाती थी । क्या यह अंगूठी पचास हजार रुपये की हो सकती है । चमकती तो बहुत है । शायद हीरा असली ही हो । लेकिन इतनी महंगी अंगूठी अशोक के पास कहां से आई ? कहीं यह चोरी का माल तो नहीं है । सूरत से अशोक ऐसा आदमी मालूम तो नहीं होता । जरूर मजाक को जरूरत से ज्यादा तूल दे रहा होगा । इतनी महंगी अंगूठी कैसे हो सकती है यह ।
“क्या सोच रही हो ?” - अशोक न जाने कब वापिस लौट आया था ।
“कुछ नहीं ।” - आशा बौखला कर बोली ।
लगभग छ: बजे अशोक आया ।
आज वह बेहद खुश नजर आ रहा था । वह आकर आशा की वगल में बेठ गया ।
“आज बहुत खुश हो ?” - आशा ने प्रश्न किया ।
“हां ।” - अशोक बोला - “बहुत खुश हूं आज मैं ।”
“आज तुमने मुझे, यहां आने के लिये क्यों कहा था ?”
“अभी बताता हूं ।” - और अशोक ने अपनी जेब में हाथ डाला और फिर बन्द मुट्ठी बाहर निकाली ।
“आज मैं तुम्हारे लिये एक चीज लाया हूं ।” - अशोक अपनी बन्द मुट्ठी आशा के सामने लाता हुआ बोला ।
“और वह चीज इस मुट्ठी में है ?”
“हां ।”
“क्या है ?”
“पहले वादा करो कि तुम उसे स्वीकार करोगी ?”
“पहले बताओ तो सही क्या है ?”
“नहीं, पहले वादा करो ।”
“अच्छा ।”
“क्या अच्छा ?”
“वादा करती हूं ।”
अशोक ने बन्द मुट्ठी उसके मुंह के सामने लाकर खोल दी । आशा के नेत्रों के सामने प्रकाश की किरणों सी फूट पड़ी । अशोक की हथेली पर एक नई नकोर अंगूठी चमचमा रही थी ।
“अंगूठी ।” - आशा के मुंह से बरबस निकल गया
“लाओ तुम्हें पहना दूं ।”
आशा ने अपना हाथ आगे नहीं बढाया ।
“देखो, तुमने वादा किया है ।”
आशा ने झिझकते हुये अपना बायां हाथ आगे बढा दिया ।
अशोक ने उसके हाथ की दूसरी उंगली में अंगूठी पहना दी ।
“कैसी है ?” - अशोक ने पूछा ।
“बहुत खूबसूरत है । कितने की होगी ?”
“पूरे पचास हजार की है ।” - अशोक बोला ।
“तुम्हारी एक एक आदत मेरी सहेली सरला से मिलती है । वह भी हर चीज की कीमत हमेशा नये पैसों में बताती है । कहती है कि मोटी मोटी रकमों का नाम लेने में बड़ा मजा आता है और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभाव की वजह से मन में बड़ी ऊंचे दर्जे की इच्छायें पैदा होती हैं । तुम भी क्या इसीलिये पांच सौ रूपयों को पचास हजार कह रहे हो ?”
अशोक केवल मुस्कराया ।
“लेकिन पांच सौ रुपये में तो बड़ी महंगी अंगूठी है यह ।”
“आशा, शायद मेरी यह आदत तुम्हारी सरला से नहीं मिलती ।” - अशोक सहज स्वर से बोला - “यह अंगूठी पचास हजार रुपये की है ।”
“क्यों मजाक कर रहे हो ?” - आशा हंसती हुई बोली ।
“यह असली हीरे की अंगूठी है ।”
आशा की हंसी में एकदम ब्रेक लग गई । अशोक गम्भीर था । उसने एक बार अपनी उंगली में जगमगाती हुई अंगूठी को देखा, फिर अशोक के धीर गम्भीर चेहरे की ओर देखा और फिर अविश्वासपूर्ण स्वर से बोली - “नहीं ।”
“आशा ।” - एकाएक अशोक बान्ध पर से नीचे फुटपाट पर उत्तर गया - “तुम यहीं ठहरो । मैं अभी एक मिनट में आता हूं ।”
“कहां जा रहे हो ?”
“अभी आकर बताता हूं ।” - अशोक बोला - “आज मैं एक बहुत बड़े झूठ पर से पर्दा उठाने वाला हूं ।”
अशोक आगे बढा गया । फिर वह सड़क पार करके मैरिन ड्राइव की विशाल इमारतों की कतार में कहीं खो गया ।
आशा परेशान सी वहीं बैठी रही । रह रह कर उसकी दृष्टि अंगूठी की ओर उठ जाती थी । क्या यह अंगूठी पचास हजार रुपये की हो सकती है । चमकती तो बहुत है । शायद हीरा असली ही हो । लेकिन इतनी महंगी अंगूठी अशोक के पास कहां से आई ? कहीं यह चोरी का माल तो नहीं है । सूरत से अशोक ऐसा आदमी मालूम तो नहीं होता । जरूर मजाक को जरूरत से ज्यादा तूल दे रहा होगा । इतनी महंगी अंगूठी कैसे हो सकती है यह ।
“क्या सोच रही हो ?” - अशोक न जाने कब वापिस लौट आया था ।
“कुछ नहीं ।” - आशा बौखला कर बोली ।