Thriller Sex Kahani - कांटा - Page 4 - SexBaba
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Thriller Sex Kahani - कांटा

और जब ऐसा होगा तो मुझे उस सिलसिले से कोई ऐतराज नहीं होगा। और तब हमारे बीच से सारे सवाल खत्म हो। जाएंगे। अब तुम खुश हो जाओ और तब के लिए जल्दी से मुझे गुड बॉय बोलो।"

बालों की आवारा लट फिर उसके माथे को चूमने लगी थी, जिसे इस बार उसने फूंक मारने के बजाय नफासत से अपनी
पतली अंगुलियों द्वारा दुरुस्त किया और उसकी ओर एक दिलकश मुस्कान उछालकर वहां से चली गई।

अजय बुत की तरह खड़ा कितनी ही देर उसे देखता रह गया। वह जितनी शोख थी, उतनी ही बेबाक भी थी जितनी शरारती
थी,

उतनी ही संजीदा भी थी। उसके व्यक्तित्व में अनछुई थीं। उसकी हर अदा दीवाना बना देने वाली थी। क्योंकि कहानी तो सचमुच ही लिखी थी और उन दोनों को उस कहानी का किरदार बनकर सिलसिला भी शुरू करना था, लिहाजा फिर इत्तेफाक हुआ था और एक बार फिर वह कयामत उससे टकराई थी। उस रोज जबकि ………..
एकाएक फ्लैट की कॉलबेल जोर से बजी और अजय की विचारशृंखला एकाएक किरचे-किरचे हो गई।

उसके जेहन को जोर का झटका लगा और वह अतीत की एक छोटी सी दौड़ लगाकर अपने वर्तमान में वापस आ गया।

मूसलाधार बारिश तो कब की थम चुकी थी मगर जिसका उसे पता ही न चला था। काले बादलों के झुंड छंट गए थे और आसमान साफ हो गया था। लेकिन ठंडी हवाओं के झोंके निरंतर चल रहे थे, जिसने उसके तर-बतर कपड़ों को किसी हद तक सुखा दिया था।

कॉलबेल फिर बजी थी। उसके होठों से आह निकल गई।

जीवन के वह लम्हे ही तो उसकी मुकम्मल जिंदगी का अहसास था, जबकि आलोका का उस हसीना का उसमें दखल हुआ था। अगर उन लम्हों को उसकी जिंदगी से निकाल दिया जाए तो कुछ भी तो नहीं बचता था उसकी वीरान जिंदगी में।
तकदीर सब कुछ छीनती ही तो आई थी आज तक उससे।
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आखिरकार आलोका भी कहां बची थी उसके पास । नियति के क्रूर पंजों ने उसे भी बड़ी बेरहमी के साथ उससे छीन लिया था और वह कुछ नहीं कर सका था कुछ भी तो नहीं।

इस दरम्यान कॉलबेल एक बार फिर बजी थी।
उसने अपने सिर को झटका। उसके साथ ही अतीत की यादें धुंधलाती चली गईं। वह ईजीचेयर से उठ खड़ा हुआ। उसने जाकर दरवाजा खोला और आगंतुक को देखते ही वह आहिस्ता से चौंक पड़ा और आंखें फाड़कर सामने खड़े शख्स को देखने लगा, जिसकी कि उस वक्त वहां मौजूदगी की उसे जरा सी भी उम्मीद नहीं थी।

"हल्लो बिरादर।” सहगल ने संदीप को इस्तकबाल किया "कैसे हो?"

प्रत्युत्तर में संदीप मुस्कराया। एक भेदभरी मुस्कराहट थी वह।

"देख ही रहे हो?" फिर वह बोला “एकदम चंगा हूं। तुम अपनी सुनाओ। जेल से बाहर कब आए।"

"समझ लो कि बस आता ही जा रहा हूं।"

"समझ लिया। मगर मुझसे मिलने का यह कौन सा तरीका निकाला है तुमने? मेरी कार ठीक करवाने के लिए अब मुझे यहां मैकेनिक बुलाना पड़ेगा।”

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“मेरा ड्राइवर मैकेनिक भी है। यह उसी का काम है। वही ठीक भी कर देगा।”

“ओह। लेकिन वह तो कहीं नजर नहीं आ रहा?" “जब उसकी जरूरत होगा तो नजर आने लगेगा।"

“समझा। पूछने की जरूरत तो नहीं है, फिर भी पूछ रहा हूं। बहरहाल मेरे फादर इन लॉ के मुलाजिम तो खैर अब तुम क्या होगे?"

सहगल ने दांत किटकिटाए।

उसके मुंह से जानकी लाल के लिए एक भद्दी सी गाली निकली। “बहुत अच्छे ।” संदीप हंसा, फिर बोला “मेरे ही मुंह पर मेरे ग्रेट फादर इन लॉ को गाली दे रहे हो? मेरी नाराजगी का जरा सा भी खौफ नहीं है तुम्हें।”

“दाई से पेट छुपा रहे हो बंधु। मुझे क्या मालूम नहीं है कि वह तुम्हारा कैसा ग्रेट फादर इन लॉ है।” 'ग्रेट' शब्द पर उसने खास जोर दिया था।

संदीप फिर हंसा वही कुटिल हंसी!

“वह तो बहुत ही मजबूत शिंकजा कसा था तुमने उसकी लाड़ली पर, नहीं तो जीवनभर उसका सौतेला दामाद ही बनकर संतोष करना पड़ता।"

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“उसमें भी कोई बुराई नहीं थी। उसकी सौतेली बेटी के पास भी कम पैसा नहीं है और खूबसूरती में वह रीनी से कम नहीं

“जानता हूं। और यह भी जानता हूं कि वह पैसा भी जानकी लाल सेठ का ही है। तुम्हारी भूतपूर्व बीवी की मां ने उसके लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी थी और अपनी बेटी को उसका हक दिलाया था।"

"हूं। लेकिन रीनी की बात और है।"

"होनी भी चाहिए। आखिर वह अरबपति बाप की बेटी है।

“कंगला तो मैं भी नहीं हूं।"

“नहीं हो तो हो जाओगे। बहुत जल्दी।”

"क्या?"

“दाई से कहीं पेट छुपता है। मैं क्या तुम्हारे बाप की खस्ता हालत से अंजान हूं। उसका रोम-रोम कर्ज में डूबा पड़ा है। दिवालियेपन की कगार पर खड़ा है। जिस दिन उसका दिवाला पिटा, कर्जदार अंगुलियों के नाखून भी नोंच ले जाएंगे। तुम्हारे

सामने बस, फॉदर इन लॉ ही आखिरी उम्मीद है।"

संदीप ने फिर संजीदगी से हुंकार भरी। उसने अपने होंठ भींच लिए। “सॉरी बंधु, थोड़ा गलत कह गया।” सहगल ने संशोधन लगाया “तुम्हारे सामने तुम्हारे ग्रेट फादर इन लॉ की मौत ही आखिरी उम्मीद है।”

“म..मौत क्यों? उसकी जिंदगी में क्या मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है? क्या अभी ही मैं उसकी बेशुमार दौलत और सम्पत्ति का वारिस नहीं हूं?"

“अगर होते तो क्या उसकी मौत का सामान करते।"
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“म...मैंने उसकी मौत का सामान नहीं किया?” वह तीखे स्वर में बोला।

"मैं अभी की बात नहीं कर रहा? अभी तो जो कुछ हुआ वह मुझे मालूम है कि किसका कारनामा है। मैं इससे पहले की बात कर रहा हूं। इससे पहले भी जानकी लाल सेठ का राम नाम सत करने की दो कोशिशें हो चुकी हैं। मेरा इशारा उस दूसरी कोशिश की तरफ था, जो तुमने की थी उसकी कार के ब्रेक फेल कराकर ।”

संदीप हकबकाया। उसने सख्त हैरानी से उसे देखा।

सहगल के होंठों पर कुटिल मुस्कराहट उभरी।

“वि...विश्वास नहीं होता।" संदीप अविश्वास से आंखें फैलाकर बोला।

"क्या ?"

“यही कि तुम सात साल के बाद जेल से बाहर आए हो?"

“पिंजरे में बंद कर देने से शेर कुत्ता नहीं बन जाता, न ही वह दुम हिलाना सीख जाता है। वह हमेशा शेर ही रहता है।"

संदीप बेचैन नजर आने लगा था।

“घबराओ मत बिरादर।” सहगल उसके मनोभावों को पढ़ता बोला “यह राज केवल मुझ तक ही रहेगा। मैं पुलिस को नहीं बताने वाला तुम्हारे...।” उसके लहजे में व्यंग सहसा उभरा और वह संदीप को आश्वस्त करता हुआ बोला।

संदीप आश्वस्त न हुआ।

"दोस्तों पर भरोसा करना सीखो बिरादर।” सहगल बोला “और कबूल करो कि अपने फादर इन लॉ के जीते जी तुम उसके वारिस नहीं हो, न हो सकते हो। तुम केवल रीनी के पति हो और वही रहने वाले हो। बल्कि वह भी नहीं रहने वाले। जानकी लाल सेठ उसका भी कोई मुनासिब रास्ता ढूंढ ही लेगा। सच पूछो तो ढूंढकर ही रहेगा। यह तुम जानते हो इसलिए तुमने उसे रास्ते से हटाने की कोशिश की थी।"
 
.
"ह...हां...।" तब जैसे संदीप के अंदर का गुबार फूट निकला था “यह सच है। मैं कबूल करता हूं कि जानकी लाल के जीते जी मेरी हैसियत रीनी के पति से ज्यादा नहीं है और आइंदा वह भी नहीं रहने वाली। वह मुझे उससे अलग करने का कोई मुनासिब और कानूनी रास्ता तलाश कर लेगा। हो सकता है कि उसने वह रास्ता तलाश कर भी लिया हो, जिसकी कि मुझे खबर नहीं। इसीलिए मैं उसे रास्ते से हटाना चाहता था।

“गुड।"

"लेकिन बहुत सख्तजान है हरामजादा। सौ साल का जैसे बीमा कराकर आया है भगवान के घर से। मरने का नाम ही नहीं ले रहा कमीना। खामखाह धरती का बोझ बना हुआ

“अब नहीं रहेगा।” सहगल इत्मिनान से बोला।

“क्या?" उसने चिंहुककर सहगल को देखा “क्या कहा तुमने?”

“मैंने कहा, अब वह धरती का बोझ नहीं रहेगा। बहुत जल्द दुनिया से रुख्सत होने वाला है। बस यूं समझ लो कि वह रुख्सत हो भी गया।” “मगर ऐसा कैसे हो सकता है?" उसने गहन अविश्वास भरी निगाहों

से सहगल को देखा “क...कौन करेगा यह?"

“वैसे तो जानकी लाल सेठ के दुश्मनों की इस शहर में कोई कमी नहीं है। उसके अपने घर में भी कोई कमी नहीं है। मगर यह काम किसी अकेले आदमी के बूते का नहीं है। अगर होता तो कब का जानकी लाल सेठ को जहन्नुम रसीद कर चुका होता। ऊपर से उनमें से कोई भी पेशेवर नहीं है। उनमें तजुर्बे की भारी कमी है।"
RSS (RAJSHARMASTORIES.COM )"तो फिर?"

“यह काम अब हम सभी को मिलकर आर्गेनाइज करना होगा।”

“और इस हम सब में कौन-कौन आते हैं?"

"तुम उन सबको जानते हो। वह सब भी जानकी लाल सेठ से बेपनाह नफरत करते हैं और अपने-अपने ढंग से उसे जहन्नुम रसीद करवाने का प्रयास भी कर चुके हैं। जिन्होंने प्रयास नहीं किया, वे आइंदा दिनों में करने का मंसूबा बनाए बैठे हैं।"

"लिहाजा उन सबको मेरा मतलब..." संदीप तनिक रोमांचित हुआ था “तुमने इकट्ठा करने का फैसला किया है। तुमने मेरे ग्रेट फादर इन लॉ के सारे दुश्मनों का पूरा आर्गेनाइजेशन बनाने का इरादा किया है?"

"जाहिर सी बात है।"

“आर्गेनाइजेशन का एक मुखिया भी होता है। वह कौन होगा?”

"तुम्हारे ख्याल से कौन होना चाहिए?"

"जाहिर है कि तुम्हारे अलावा तो कोई और नहीं हो सकता।"

“सो देयर।"

"मगर तुम तो पेशेवर नहीं हो तजुर्बेकार नहीं हो तुमने पहले कभी कोई कत्ल जैसा क्राइम नहीं किया?"

“फिर भी तुम सबसे कहीं ज्यादा तजुर्बा है मेरे पास। पेशेवर न सही, मगर बड़े-बड़े पेशेवरों के साथ सात साल रह कर
आया हूं। जिसके बारे में कहते हैं कि संगत बुरी चीज होती

"यह तो है।"

“वैसे भी हमारे सामने बड़ी समस्या अपने दुश्मन का कत्ल नहीं है। क्योंकि वह कोई माफिया डॉन नहीं है, हम लोगों के जैसा ही एक साधारण शख्स है, जिसने हाल ही में बस दो सशस्त्र अंगरक्षक इंगेज कर लिए हैं। मगर...।"

"म...मगर..क्या?"
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“वे अंगरक्षक चौबीसों घंटे भले ही उसके साथ रहते हैं और उसके साथ कार में चलते हैं। लेकिन वह कोई समस्या नहीं

“क्यों, क्यों समस्या नहीं हैं? मत भूलो कि इस बार ग्रेट लॉ की जान उनके उन्हीं अंगरक्षकों की वजह से ही बची है।”

"उनकी वजह से नहीं, उस बुलेटप्रूफ जैकेट की वजह से बची है, जो कि उसने अपने कपड़ों के अंदर पहन रखी थी।"

"वह तो वह आइंदा भी पहनकर रखेगा। अब तो खासतौर पर पहनकर रखेगा।"

"लेकिन वह सब कुछ जब वह चलेगा तो कार के अंदर ही होगा। और जब उसकी कार के परखच्चे उड़ेंगे, तो उसके
अंदर मौजूद हर चीज के भी परखच्चे उड़ जाएंगे।"

“ओहो...।”

“तब न कार बचेगी, न उसमें बुलेटप्रूफ पहनकर बैठा जानकी लाल बचेगा, न उसके हथियारबंद बॉडीगार्ड बचेंगे और न उसका ड्राइवर। सारा खेल एक ही झटके में खत्म हो जाएगा।"

"तुम्हारे मुंह में घी शक्कर। मगर क्या सच में ऐसा होगा?"

"होकर रहेगा।” सहगल पूरे आत्मविश्वास के साथ बोला था "खातिर जमा रखो, यह होकर रहेगा।"

“फिर समस्या क्या है?"

“समस्या उसके बाद की है। उसके कत्ल के छींटे अपने-अपने दामन पर पड़ने से रोकने की है।”

“तुम्हारा मतलब पुलिस से है कानून से है?"
 
“हां। और यही असली समस्या है। क्योंकि वह घाघ इंस्पेक्टर मदारी पहले से ही इस केस पर काम कर रहा है। हममें से हर कोई उसके संदेह की लिस्ट में है और अहम बात, वह लिस्ट बहुत लंबी है बहुत ज्यादा लम्बी, जितनी कि पहले कभी किसी केस में नहीं हुई होगी। उससे भी अहम बात हममें से हर किसी के पास उसके कत्ल की पुख्ता वजह भी है।"

"हमें इन हालात को कैश करना होगा।"

"कैसे कैश करना होगा?”

“बिना किसी भय, घबराहट या आशंका के पूरी जिम्मेदारी से पुलिस तफ्तीश का सामना करना होगा। हमारी रणनीति पहले से तय होगी और वह रणनीति बेहद पुख्ता होगी।"

"क्या पुख्ता होगा उसमें?"

"हम सबको एक-दूसरे के खिलाफ विरोधाभासी बयान देने होंगे। ऐसे सबूतों और आत्मविश्वास के साथ एक-दूसरे की तरफ शक की अंगुली उठानी होगी कि वह इंस्पेक्टर मदारी खुद ही मदारी का बंदर बनकर रह जाए।"

“मगर तुमने सबूतों का नाम लिया?"

“हां। वह सारे सबूत गढ़े हुए और फर्जी होंगे, और क्योंकि गढ़े हुए तथा फर्जी होंगे इसलिए खुद ही फर्जी साबित हो जाएंगे और हममें से हर एक का पीछा छूट जाएगा। यही सिलसिला आगे भी चलता रहेगा चलता रहेगा और इंस्पेक्टर मदारी गुमराह होता रहेगा।"

कब तक गुमराह होता रहेगा?"

“जब तक कि यह मामला ठंडे बस्ते में नहीं चला जाता।"

"ठंडे बस्ते में?"

“यह हिंदुस्तानी पुलिस है बंधु, जो अपने काम के बोझ से दबी कराह रही है। वह किसी एक केस में जिंदगी भर अपना सिर खपाती नहीं रह सकती। इतना वक्त उसके पास नहीं होता। थक-हार कर अंततः वह उस फाइल को बंद कर देगी और जानकी लाल की मौत बीते कल की बात हो जाएगी।"

"तुम्हारा प्लान अच्छा है, मगर क्या हम इसे पूरी कामयाबी से अंजाम दे पाएंगे?"

“अगर हम सब अपने-अपने हिस्से का काम पूरी जिम्मेदारी और निष्ठा के साथ करेंगे तो क्यों नहीं अंजाम दे पाएंगे।"

“यह गारंटी तुम कैसे कर सकते हो कि सब अपने-अपने हिस्से का काम पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करेंगे।"

“गारंटी है।” सहगल दृढ़तापूर्वक बोला।

“क्या गारंटी है?”

“क्योंकि गुनाहगार हम सभी होंगे। और अगर किसी ने कोई कोताही की तो उसे मालूम होगा कि वह भी जेल में होगा।

यही खौफ उसे जिम्मेदार और निष्ठावान बनने पर मजबूर कर देगा।"
“यह तो खैर तुम ठीक कह रहे हो, फिर भी अगर कोई चूक होती है तो हम सबका मुकाम जेल होगा।"

“जाहिर सी बात है। लेकिन वह चूक अकेले भी हो सकती है। तब भी उसका मुकाम जेल ही होगा। लेकिन तब उसके साथ एक बड़ा निगेटिव फैक्टर यह होगा कि बाहर उसके केस की दमदार पैरवी करने वाला कोई नहीं होगा। मेरा मतलब, कोई ऐसा नहीं होगा जो कि ऐसे मामलों से निबटने की कूब्बत रखता हो और माद्दा भी।"

“जो कि तुम हो?"

“वह शख्स तुम भी हो सकते हो। हर वह शख्स हो सकता है जो कि गिरफ्तार होने से बच गया होगा और जिसकी गिरफ्तारी का वारंट तामील हो चुका होगा। सब क्योंकि एक समान मुजरिम होंगे, लिहाजा इस केस को कमजोर करने के लिए हममें से हर कोई अपना सर्वस्व झोंक देगा।"

“हूं। लेकिन अगर हम सब गिरफ्तार हो गए तो?"

“ऐसा कभी नहीं हो सकता।” उसने मजबूती से इंकार में गरदन हिलाई “इस मामले में हम सबको खासतौर पर चौकन्ना रहना होगा और चूक होने की सूरत में तो खासतौर पर चौकन्ना रहना होगा कि हम सब इकट्ठा ही पुलिस के हाथ न लगने पाएं।"

“म..मैं समझ गया। बहुत दूर तक सोचे बैठे हो तुम?"

“तुम्हारी उम्मीद से कहीं ज्यादा दूर तक। परफेक्ट क्राइम के लिए यह बहुत जरूरी है। कोई और सवाल हो तो पूछ सकते
हो?"

“न...नहीं। मुझे और कुछ नहीं पूछना।”
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"तो फिर इस आर्गेनाइजेशन में शामिल होने के लिए तुमने क्या फैसला किया है?"

“म...मुझे सोचने के लिए थोड़ा सा वक्त दो।"

“वक्त ही तो हमारे पास नहीं है।"

“क....क्यों?" वक्त को क्या हुआ?

“जानकी लाल सेठ की मौत का दिन मुकर्रर हो चुका है। और उस दिन को टाला नहीं जा सकता आगे सरकाया नहीं जा
सकता।"

“कोई खास वजह है?"

"बहुत ही खास।"

“ओह। कौन सा दिन मुकर्रर किया है तुमने ग्रेट लॉ की मौत का?”

“यह राज आर्गेनाइजेशन से बाहर के आदमी को नहीं बताया जा सकता।"
 
"लेकिन तुम्हारी जल्दबाजी से अंदाजा तो लगाया जा सकता है।”

“जरूर लगाओ?"

“वह दिन परसों या कल का हो सकता है?" संदीप ने अंदाजा लगाया।

“आज क्यों नहीं हो सकता?"
संदीप ने जवाब न दिया।

“इंकार के लिए भी तुम पूरी तरह आजाद हो।” उसकी दुविधा भांपकर सहगल ने कहा “और यकीन मानो, तब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं कहूंगा। अपनी आर्गेनाइजेशन में शामिल होने के लिए तुम पर कोई दबाव नहीं बनाऊंगा।”

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“यह जानने के बावजूद कि...कि तुम जिस आदमी के कत्ल का प्लान बना रहे हो, वह मुझे मालूम है और महज इतनी सी बात तुम्हारे सारे इरादों पर पानी फेर सकती है तुम्हें जेल पहुंचा सकती है?"

"मैं एक सजायाफ्ता मुजरिम हूं, जो हाल ही में सात बरस की जेल काटकर बाहर निकला है।"

"त...तो...?" उसके माथे पर बल पड़ गए थे।

“आइंदा जेल की यातना मुझ पर उतना भारी नहीं गुजरेगी, जितना कि तुम पर गुजरेगी।”

“म...मुझ पर।” उसने चिहुंककर सहगल को देखा “मुझ पर क्यों?"

“क्योंकि मैं अकेला जेल नहीं जाऊंगा। मेरे साथ तुम भी जेल में होगे।"

“म...मैं क्यों?"
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"तुम भी जानकी लाल सेठ के कत्ल के ख्वाहिशमंद हो, और एक बार यह कोशिश कर चुके हो उसकी कार के ब्रेक खराब करके।"

"कौन मानेगा?”

“तुम्हारी ही बात कौन मानेगा?"

“तुम व..वाकई बहुत घुटे हुए आदमी हो?"

“तुम भी कुछ कम नहीं हो।”

"हा...हा..हा...।" उसने खुलकर एक ठहाका लगाया।
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“यानि कि तुम तैयार हो?" सहगल अपलक उसे देखता हुआ बोला।

“हां।" वह हंसना बंद करके बोला “लेकिन तुम्हारी बाकी आर्गेनाइजेशन कहां है?"
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“आज रात हम एक ही छत के नीचे डिनर करने वाले हैं।"

“ग्रेट लॉ के सारे दुश्मन इकट्ठा कर लिए या फिर अभी कोई रह गया है?"

“अभी एक बाकी है। लेकिन इत्मिनान रखो, रात के खाने में वह भी शामिल होगा?"

“यानि कि ग्रेट लॉ की मौत के दिन के बारे में जानने के लिए अभी रात तक का इंतजार करना होगा?"

"वह तो है।"

“तब फिर समझ लो कि कैंसल ।”

“क...क्या कैंसल ?” सहगल ने सकपकाकर पूछा। उसके माथे पर बल पड़ गए।

"तुम्हारी इस मीटिंग ने सारा नशा हिरन कर दिया। मैं यहां से जाने के बाद अभी और पीने का इरादा रखता था।” संदीप ने स्पष्ट किया “अब वह इरादा कैंसल।"

“ओह।" सहगल के माथे पर पड़े बल गायब हो गए।

"मगर रात को मैं सारी कसर निकाल लूंगा। अपने ग्रेट लॉ की मौत को एडवांस में जमकर एंज्वायमेंट करूंगा। चियर्स।"

सहगल ना चाहते हुए भी बरबस ही मुस्करा उठा।
0 ……………………………..
 
आगंतुक इंस्पेक्टर मदारी था।
वह तब भी सिविल ड्रेस में था। लेकिन उसका वह खास किस्म का रूल अब तक भी उसके हाथ में था जिसे हिलाने से उसमें डमरू की आवाज निकलती थी।

“जय भोलेनाथ ।” उसने आते ही अपने खास अंदाज में झुककर बड़े अदब से अजय का अभिवादन किया और रूल हिलाकर दो-तीन बार डमरू बजाया।

"इ...इंस्पेक्टर तुम?" अजय के मुंह से खुद ही निकल गया। उसके चेहरे पर उलझन तथा असमंजस के ढेरों भाव आ गए
थे। वह अपलक मदारी को देखने लगा था।

"हूं तो सौ परसेंट मैं ही?" मदारी उसके चेहरे पर नजरें गडाता हुआ बोला “लेकिन इसमें इतना हैरान होने की क्या बात है?"

“पहले तो तुम अपना यह डमरू बजाना बंद करो प्लीज।”

"लो बंद कर दिया।” उसने तुरंत डमरू बजाना बंद कर दिया था।

"शुक्रिया।"

"गुलाम को यहीं खड़े रहना होगा श्रीमान, या फिर आपके यहां मेहमान को अंदर भी बुलाया जाता है?"

“मेहमान को अंदर बुलाया जाता है।” अजय उसे घूरकर बोला “और तुम मेहमान नहीं हो।"
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“यानि कि यहीं खड़े-खड़े गुफ्तगू करना होगा। कोई बात नहीं। इंस्पेक्टर मदारी की टांगें बहुत मजबूत हैं। दोनों पैरों में स्टील रॉड जो पड़ी हुई है। मैं मैनेज कर लूंगा।"

"हमें मिले अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ इंस्पेक्टर, फिर इतनी जल्दी तुम्हें मुझसे क्या काम आ पड़ा।"

“काम ही तो आ पड़ा, नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी जो इतनी ऊंचाई तक सीढ़ियां चढ़कर आता। देख नहीं रहे मेरी सांसें कैसे धौंकनी बनी हुई है?"

“यहां लिफ्ट भी लगी है। उससे क्यों नहीं आए?”

“मैं इस वक्त ड्यूटी पर हूं जजमान और जब मैं ड्यूटी पर होता हूं तो लिफ्ट का इस्तेमाल नहीं करता। हाथ-पांवों को तकलीफ देकर पूरी मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी बजाता हूं और सरकार की तनख्वाह को हलाल करता हूं।"

"बड़ा अच्छा करते हैं।” अजय मुंह बनाकर बोला “अब काम की बात पर आओ और अपने यहां तशरीफ लाने की वजह बताओ।"

"बताता हूं। जो बताने आया हूं जब वही नहीं बताऊंगा तो फिर इतनी भयानक मेहनत का क्या फायदा होगा। दरअसल श्रीमान, बात यह है कि मैं इस वक्त बहुत ज्यादा परेशान हूं और फिक्रमंद भी।”

“जरूर होंगे। मगर तुम्हारी परेशानी और फिक्र से मेरा क्या सरोकार है।"

“उससे हर उस आदमी का सरोकार है जजमान, जो आपके एम्प्लायर श्री-श्री एक हजार आठ जानकी लाल उर्फ लाल साहब से अदावत रखता है।"

"तो जाकर उससे बताओ जो तुम्हारे इतने लम्बे तखल्लुस वाले साहब से अदावत रखता है। वह तो मेरे एम्प्लायर हैं। और कोई अपने एम्प्लायर का दुश्मन भला कैसे हो सकता है।"

"इस दुनिया में सब कुछ हो सकता है जजमान।” वह अपने शब्दों पर जोर देता हुआ बोला।

"बात को घुमाओ मत इंस्पेक्टर। तुम्हें जो कुछ भी कहना है साफ-साफ कहो?"

“वही तो कह रहा हूं कीर्तिमान। आपकी जान खतरे में है।"

“किससे खतरा है म...मेरी जान को?” अजय चौंका था।

"आपके एम्प्लायर से श्री-श्री लाल साहब से। अभी बता चुका

“मगर लाल साहब से मुझे क्यों खतरा है?" वह और ज्यादा चौंका था।

“क्योंकि आप वह हैं जो आपको नहीं होना चाहिए।"
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“क...क्या हूं मैं और क्या मुझे नहीं होना चाहिए।” वह बेसाख्ता हकला गया था।

“लगता है आप इंस्पेक्टर मदारी का इम्तहान लेना चाहते हैं?"

“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है।"

“आपके लिए मेरी एक बहुत ही नेक सलाह है श्रीमान ।”

"क्या नेक सलाह है मेरे लिए तुम्हारी?"

"जितनी जल्दी हो सके, इस शहर से तिड़ी हो जाओ और इतनी दूर निकल जाओ कि तुम्हारी परछाईं भी किसी को ढूंढे न मिले?"

“मगर क्यों? क्या दिल्ली में भूकंप आने वाला है?"

"दिल्ली में तो नहीं लेकिन हर उस भद्रपुरुष की जिंदगी में सुनामी जरूर आने वाली है, जो श्री-श्री की नजरों को चुभ रहा है और उसे जहन्नुम रसीद कराने का ख्वाहिशमंद है। सुनार बनकर उस तमाम के तमाम अदावतगीरों ने अपने रकीब श्री-श्री पर बहुत चोट कर ली, अब लुहार की बारी आने वाली है अब श्री-श्री की बारी आने वाली है?"

"लाल साहब ने तुमसे ऐसा बोला है।"

“नहीं। वह भला मुझे ऐसा क्यों बोलेंगे?"

"तो फिर?"

“मेरा नाम इंस्पेक्टर मदारी है।” उसने अपना सीना फुलाया और बड़े फख से बोला “उड़ती चिड़िया के पर गिन लेता हूं अपने इलाके में होने वाले क्राइम की गंध हवा में सूंघ लेता

“और यह तुमने हवा में सूंघकर ही जाना है कि यहां आइंदा दिनों में कोई क्राइम होने वाला है?”

"जरा सा गलत कह दिया जजमान। आइंदा दिनों में यहां क्राइम की सुनामी आने वाली है।"

“सु...सुनामी?"

“ज..जी हां।”

“और वह सुनामी लाल साहब लाने वाले हैं न?”
 
“और कौन लाएगा भला। तीन बार जहन्नुम रसीद होने से बचे हैं श्री-श्री। इंतहा हो चुकी है अब तो। उस रोज तुम भी श्री-श्री के पास अस्पताल में मौजूद थे, मगर तुमने वह नहीं देखा होगा, जो मैंने देखा है उनकी नरगिसी आंखों में।"

“क..क्या देखा है तुमने लाल साहब की आंखों में?"

"खून। मैंने उबलता खून देखा है और उनके सीने में धधकती बदले की आग की तपिश को महसूस किया है।"

“म...मगर मैंने तो ऐसा कुछ भी अ....अहसास नहीं किया। उन्होंने ऐसा कुछ कहा भी तो नहीं था?"

“अब इंस्पेक्टर मदारी जैसी तीखी नजर हर किसी को कहां बख्शता है ऊपर वाला। जहां तक कहने की बात है तो श्री-श्री को तम मेरे से ज्यादा नहीं जानते। वह उन लोगों में हैं जो दिल की बात कभी होंठों पर नहीं लाते, और जो होठों पर होता है उसका दिल से कोई वास्ता नहीं होता।"

“अ...और उनके दिल में, आप कह रहे हैं कि इस वक्त बेहद भयानक इरादे हैं। उन्होंने खून-खराबे का मंसूबा बना लिया

“तभी तो मैं इतना फिक्रमंद हुआ पड़ा हूं। तीन दिनों से दोपहर का डिनर नहीं किया।"

"दोपहर का लंच किया जाता है डिनर नहीं।"

“सॉरी। स्लिप हो गया था जजमान। लंच नहीं किया बीते तीन दिनों से। देख नहीं रहे मेरी सेहत का क्या हाल हो गया है। तीन दिनों में छः किलो वजन कम हो गया है।"

“छः...छः किलो वजन कम हो गया?"

“और नहीं तो क्या?"

“मगर तुम्हारे इस तरह हलकान होने की वजह?"

"बहुत माकूल है कीर्तिमान। और उस वजह का नाम वीआरएस है।"

“वीआरस ।” अजय चकित हुए बिना न रह सका था “क...क्या तुम वीआरएस ले रहे हो?"

"ठीक समझा श्रीमान । अब यह तो सारा शहर जानता है कि इंस्पेक्टर मदारी का आज तक सर्विस रिकार्ड कितना साफ सुथरा है ऐरियल की सफेदी को भी मात करने वाला है। एक भी दाग-धब्बा नहीं है उस पर। ऐसे में अगर वीआरएस से ठीक पहले मेरे इतने उजले सर्विस रिकार्ड को अगर किसी की नजर लग जाती है तो जरा समझो, मेरा क्या हाल होगा, मेरी आज तक की सारी मेहनत पर पानी नहीं फिर जाएगा। पानी भी एक्वाफ्रेश वाला फिल्टर किया हुआ नहीं बल्कि समुद्र का एकदम खारा पानी है।

लेकिन तुम वीआरएस क्यों लेना चाहते हो। अभी तो तुम्हारे रिटायरमेंट में बहुत वक्त होगा।"

“बजा फरमाया जजमान। लेकिन मजबूरी है जरूरत है।"

"क्या जरूरत है?"
“मेरी बीबी अगले साल फॉरेन टूर पर जाना चाहती है और बच्चों को भी अपने साथ ले जाना चाहती है। तीन से पांच महीने तक उसका फॉरेन में ही रहने का लम्बा प्रोग्राम है।"

"त..तो...?"

"तो क्या। बच्चों के साथ फॉरेन में इतना लम्बा स्टे करना कोई मजाक है। आपको क्या लगता है कीर्तिमान, यह दस-बीस हजार में हो जायेगा। अजी लाखों रुपयों की जरूरत होगी। और यह लाखों रुपया हासिल करने का मेरे पास बस एक ही तरीका है वीआरएस।"

“ओह। तो इसलिए तुम वीआरएस ले रहे हो।”

“जाहिर सी बात है श्रीमान। सरकार की तनख्वाह का एक-एक रुपया हलाल करने वाला इंस्पेक्टर मदारी इतना ढेर सारा रुपया एकमुश्त और कहां से ला सकता है।"

“इसीलिए तुम्हारे वीआरएस पर आंच आना तुम्हें मंजूर नहीं है। और इसीलिए अपने इलाके में होने वाले क्राइम के अंदेशे से तुम इतने हलकान हो रहे हो, जिसकी फिक्र में तुम बताते हो कि तुम्हारा वजन तीन दिन में छः किलो कम हो गया?"

“क्या नहीं होना चाहिए भगवान?” उसने पहली बार अपने सम्बोधन में एक नया इजाफा किया था

“अपने इतने गंभीर अंदेशे को मुझे अनदेखा कर देना चाहिए ?"

"हरगिज नहीं।”

"शुक्र है कि आपने 'हां' नहीं कह दिया? नहीं तो मैं खड़ा-खड़ा ही गिर पड़ता। दिल पर घूसा खाकर कौन अपने पैरों पर खड़ा रह सकता है?"

“इंस्पेक्टर।” अजय ने उसे फिर से घूरना शुरू कर दिया था

“तुम्हें नहीं लगता कि तुम कुछ ओवर रिएक्ट कर रहे हो?"

“हुच्च।”

“क..क्या हुआ?” अजय ने एकाएक हड़बड़ाकर पूछा।

"वही लग गया दिल पर, जिसका डर था।"

"चूं...चूंसा?”

“जी हां जजमान। मेरे इतने गंभीर मसले को आप मेरा ओवर रिएक्ट बता रहे हैं। बलिहारी जमाने की।”

“बिना किसी ठोस सबूत या आधार के तुम इतना बड़ा दावा आखिर कैसे कर सकते हो इंस्पेक्टर कि लाल साहब कोई खून-खराबे का मंसूबा बनाए हुए हैं। अगर उन्हें मालूम हो गया कि तुम उनके बारे में कितनी गंभीर अफवाह फैला रहे हो तो जानते हो क्या होगा?”

"बहुत बुरा होगा। लेकिन वह तभी होगा श्रीमान, जब कि वह सचमुच कोई अफवाह होगी।”

“तो तुम अपनी इस रट से बाज नहीं आने वाले कि लाल साहब खून-खराबे का पक्का इरादा कर चुके हैं?”

“कैसे बाज आ जाऊं?" वह तनिक रूंआसा हुआ था।

“इसका मतलब वे जानते हैं कि उनके दुश्मन कौन हैं? कौन है जो उनकी जान का दुश्मन बना हुआ है?"

“वह कोई एक कहां है जजमान उन भद्रपुरुषों की तादाद एक से ज्यादा है।"
 
“जिनमें से बकौल त...तुम्हारे मैं भी एक हूं।” वह व्यग्र हो उठा था लेकिन अपनी बेचैनी उसने इंस्पेक्टर मदारी पर उजागर नहीं होने दी थी।

“करेक्ट?" वह निःसंकोच बोला था।

“और लाल साहब अपने उन तमाम के तमाम दुश्मनों को जानते हैं? उन्हें यह भी मालूम है कि उन पर हुए ताजा हमले में किसका हाथ है?"

"इसका जवाब क्या अलग से देना पड़ेगा श्रीमान?"

"इसके बावजूद क्या तुम यह बताने की जहमत करोगे इंस्पेक्टर कि लाल साहब आज तक इतना खामोश क्यों बैठे रहे? क्या वे अपने ऊपर होने वाले तीसरे हमले का ही इंतजार कर रहे थे? या फिर तब तक पानी सिर से ऊपर नहीं हुआ था? और साफ कहूं तो तब तक इंतहा नहीं हुई थी?"

“वह सब तो खैर पहले ही हो चुका था।"

"तो फिर?"

“तो फिर यह श्रीमान कि श्री-श्री इंतजार कर रहे थे।"

“किसका इंतजार कर रहे थे तुम्हारे श्री-श्री?"

“माकूल वक्त का, जो कि आज आया है?"

“आज आया है?" अजय के माथे पर आड़ी तिरछी रेखाएं उभरी थीं “आज ऐसा क्या हो गया?"

“आपको सचमुच नहीं मालूम?”

“क्या नहीं मालूम मुझे।” \

“क्या आपको सचमुच नहीं मालूम श्रीमान?” मदारी सख्त हैरान हुआ था।

“देखो इंस्पेक्टर, पहेलियां मत बुझाओ। तुम्हें जो कहना है साफ-साफ कहो।"

"जय गोविंदम्, जय गोपालम।"

"क्या?"

“गोपाल नाम है उस माकूल वक्त का। कुछ याद आया इस नाम से?"

“ग...गोपाल के नाम से?"

"हां।"

"नहीं?"

"बहुत मनहूस नाम है यह लेते ही उबकाई आने लगती है। शुक्र है कि इस वक्त नहीं आई।"

“क..कौन है यह गोपाल?"

“एक खूखार कातिल । जो कभी एक कुख्यात सुपारी किलर हुआ था, जिसका नाम सुनते ही राजधानी सिहर जाती थी।"

"फिर?"

"फिर क्या? राजधानी के अंदर भला कोई प्राइवेट किलर बिना परमीशन के अपनी दुकान कैसे चला सकता है, लिहाजा धर लिया गया और सीधे तिहाड़ में पहुंचा दिया गया पन्द्रह साल उम्र कैद की सजा भुगतने के लिए।"

“कि...किस जुर्म में?"

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"क्या पता किस जुर्म में? मुझे तो याद नहीं कि उसने कल के अलावा भी कभी कोई और जुर्म किया है, अलबत्ता कभी-कभी टेस्ट बदलने के लिए एक-दो बलात्कार भी कर लिया करता था लेकिन उस पर दोष कत्ल का ही साबित हुआ था।"

“कि...किसके कत्ल का?"

"ठीक से याद नहीं है। कैसे याद रख पाता कोई एक आध कत्ल तो किए नहीं थे उसने कत्लों की तो चलती-फिरती दुकान था वह।"

“फिर भी उसे केवल पन्द्रह साल की ही सजा हुई? सीधे-फांसी पर ही नहीं लटका दिया गया उसे?"

“फांसी पर तो उसे तब लटकाया जाता जबकि उसके सारे जुर्म साबित हो जाते उसके हर गुनाह का अदालत में पर्दाफाश होता। वह तो होकर भी नहीं दिया था।"

"क्यों? क्यों नहीं हुआ था वह ?"

“होने नहीं दिया गया था। कोई बीच में आ गया था।

“कौन?”

“क्या पता कौन? हम पुलिस इंस्पेक्टरों के पास याद रखने को और भी बहुत कुछ होता है, ऊपर से तब तो मैं इंस्पेक्टर भी नहीं था। बस इतना याद है कि कोई था जो बड़ी वफादारी से उस वक्त इस गोविंदम्-गोपालम और अदालत के बीच आ गया था। जिसने उसे फांसी से बचाने के लिए रात-दिन एक कर दिया था और पुलिस-अदालत से गठजोड़ करके उसके केस को बहुत कमजोर कर दिया था, जिससे उसके बाकी तमाम गुनाह साबित नहीं हो सके थे। केवल एक ही कत्ल का जुर्म उस पर साबित हो सका था, जिसके ऐवज में उसे पन्द्रह साल उम्र कैद बामुशक्कत मिली थी। वैसे देखा जाए तो यह इतनी सजा भी कुछ कम नहीं होती।"

“और अगर वह आदमी बीच में नहीं आया होता तो उसे जरूर सजा-ए-मौत ही मिली होती?"

"यकीनन।"

“और उस आदमी के बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम?"

“गंगाजल रखते हो तो ला दो। हाथ में उठाकर कह दूं ।”

"उसकी जरूरत नहीं है।" अजय का स्वर शुष्क हो गया था "मगर इस कांट्रेक्ट किलर का जिक्र इस वक्त किसलिए? उसका मौजूदा हालात से क्या वास्ता?"

"वास्ता हो सकता है।"

"वह कैसे?"

"इंस्पेक्टर मदारी का अंदाजा है कि गोपालम् का वह नामालूम बेचारा मददगार, कहते दिल फड़कता है, अपने श्री-श्री हो सकते हैं?"

"व्हाट? अजय चिहुंककर बोला था “लाल साहब?"

"हां।"

"लेकिन यह तुम कैसे कह सकते हो?"

"क्योंकि सूत्र कहते हैं कि श्री-श्री का गोपालम से याराना था?"

“ल..लाल साहब जैसे इंसान का भला किसी कांट्रेक्ट किलर से क्या याराना हो सकता है?"

"उस वक्त श्री-श्री की हैसियत, सूत्र कहते हैं कि आज के जैसी नहीं थी, लेकिन बुरी भी नहीं थी। घास खाने वाले तो वह बिल्कुल भी नहीं थे।"

“मतलब?"

"आम आदमी भी वह नहीं थे। सूत्र कहते हैं कि बहुत फंदेबाज टाइप के महापुरुष थे उस दौर में वह। आज भी कुछ कम नहीं हैं। और ऐसे महापुरुषों को गोपालम् जैसे भद्रपुरुषों की जरूरत अक्सर पड़ जाया करती है।"

“क...क्यों पड़ जाया करती है?” अजय के दिल में उथल-पुथल मच गई थी। वह अपलक मदारी को देखने लगा था।

किन्हीं महान कामों को अंजाम देने के लिए।"

“म..महान काम?" उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं।

“जिन्हें अंजाम देने के लिए ही तो ‘महापुरुष' दुनिया में आते हैं।”

“कहीं तुम यह तो नहीं कहना चाहते इंस्पेक्टर कि...कि पन्द्रह साल पहले ल..लाल साहब ने उस कुख्यात किलर गोपाल से कोई जुर्म कराया था?"

“तौबा।” उसने बड़े नाटकीय अंदाज में अपने कानों को छुआ है “मेरी इतनी मजाल कहां हो सकती है जजमान कि इतने बड़े महापुरुष पर इतना घटिया इल्जाम लगाऊं। पर...।"

“रुक क्यों गए तुम, आगे बोलो?” उसने व्यग्र होकर पूछा “पर क्या?"

“कहीं तो कुछ ऐसा जरूर था जो नहीं होना चाहिए था। वरना कहां श्री-श्री जैसा महापुरुष और कहां गोपाल जैसा ठू-ठां वाला आदमी। उसके लिए भला श्री-श्री अपने सिर-धड़ की बाजी क्यों लगाते। वैसे अभी यह निश्चित नहीं है कि अपने श्री-श्री ही वही आदमी थे।"

"फिर इतनी बकवास का क्या मतलब?"

"है न?"

"क..क्या ?"

“उस भद्रपुरुष गोपालम् की पन्द्रह साल की सजा पूरी हो चुकी है। और... दोनों हाथ से अपना दिल थाम लो श्रीमान, कल वह जेल से रिहा भी हो चुका है।”

“क...कौन?” अजय न चाहते हुए भी हकला गया था “वह कुख्यात किलर गोपाल?"
 
“वही। और सूत्र चुगली कर रहे हैं कि कल गोपालम् जब बाहर निकला था तो एक चमचमाती हुई बत्तीस लाख की लम्बी-चौड़ी कार उसे रिसीव करने के लिए जेल के फाटक पर पहुंची थी, जिसमें खुद श्री-श्री मौजूद थे।"

“य...यानि कि ग..गोपाल को रिसीव करने खुद लाल साहब जेल पहुंचे थे।"

“सौ फीसदी दुरुस्त समझे जजमान।"

“म...मगर यह कैसे हो सकता है? लाल साहब तो अस्पताल में हैं?"

"ताजा समाचारों के मुताबिक उन्हें कल सुबह के दस बजे डिस्चार्ज कर दिया गया था और गोपाल एक बजे के लगभग रिहा हुआ है।”

“यानि कि वह जेल से छूटते ही उसे रिसीव करने जेल पहुंचे थे।"

“कर दिया न हैरान?"

"त...तुमने खुद उन्हें जेल के फाटक पर देखा था?"

“सब कुछ आंखों से देखा जाना ही जरूरी नहीं होता श्रीमान। सूत्र भी तो आखिर कोई चीज होते हैं, जिनकी बदौलत हम पुलिस वालों की दुकान चलती है।”

“तुम्हारे सूत्र गलत भी हो सकते हैं।"

"पुलिस के सूत्र बहुत विश्वस्त होते हैं जजमान। उनके गलत होने की संभावना का परसेंट बहुत कम होता है। और फिर यह कोई पहला मौका थोड़े ही न है अपने उस चहेते से उनकी मुलाकात का। उससे पहले भी तो उनका मिलाप हो चुका है।”

“प..पहले कब उनका मिलाप हो चुका है और कहां?"

"तिहाड़ में। वहां का रिकार्ड जाकर चेक कर लो। पिछले पन्द्रह सालों में एक नहीं. दो नहीं तीन नहीं परे पांच बार श्री-श्री के चरण कमल तिहाड़ में पड़े हैं और वहां आज तक उन्होंने केवल एक ही आदमी के दर्शन लाभ किए हैं, जिसका नाम गोपालम् है।"

“अगर तुम सच कह रहे हो इंस्पेक्टर तो यह सचमुच बहुत चौंकाने वाली बात है।"

“तभी तो मैं बहुत जोर से चौंका हूं। और आपको भी पुरजोर चौंकने की सलाह दे रहा हूं। मगर साथ ही इसके पीछे छिपे उस इशारे को भी समझने की दरयाफ्त कर रहा हूं, जो तुमसे, मुझसे और श्री-श्री की मौत के तमन्नाई हर भद्र पुरुष से कह रहा है।"

"क्या..क्या कह रहा है?"

"तुम्हारे इस सवाल का जवाब दे रहा है कि श्री-श्री अभी तक खामोश क्यों बैठे रहे सिर से ऊपर पानी निकलने का इंतजार क्यों करते रहे? खामोशी से जुल्म पर जुल्म क्यों सहते रहे? असल में जजमान, उन्हें मालूम था कि उनका हम प्याला, हम निवाला, जो कि जेल में बंद था, वह बहुत जल्द जेल से रिहा हो जाने वाला था। क्योंकि फिर उनके उन तमाम दश्मनों के सिर धड़ से अलग होने का सिलसिला शुरू हो जाने वाला था, जो श्री-श्री का ढाई किलो का सिर उनके धड़ से अलग करने के ख्वाहिशमंद हैं। वैसे...।” उसने पंजों के बल उचककर अजय के सिर को जरा गौर से देखा, फिर कुछ दुविधा में पड़ता हुआ बोला “आपका अपना सिर तो अभी तक अपनी जगह पर मौजूद मालूम पड़ता है।"

"क..क्या मतलब?" अजय ने चिंहककर पूछा।

“सही-सही मतलब तो मुझे भी नहीं पता। लेकिन मैं इस बात पर सख्त हैरान हूं कि अभी तक सब सही सलामत कैसे है कोई सिर धड़ से अलग क्यों नहीं हुआ? श्री-श्री की लाश देखने के तलबगार सारे के सारे लोग अभी तक साबुत कैसे मौजूद हैं?"

“मैंने कहा न कि मैं लाल साहब की मौत का तलबगार नहीं हूं इंस्पेक्टर।” अजय पुरजोर विरोध भरे स्वर में बोला। लेकिन अपनी आवाज में छिपा खोखलापन खुद उसे भी साफ महसूस हुआ था “अ...और फिर आखिर यह बेहूदा इल्जाम तुम मुझ पर कैसे लगा सकते हो? लाल साहब से अ...आखिर क्या अदावत हो सकती है मेरी? और जब उनसे मेरी कोई अदावत नहीं है तो मैं क्यों उनका बुरा चाहूंगा?”

“काफी अच्छा सवाल पूछा है जजमान।” बड़े ओज से मदारी बोला “मगर जरा देर से पूछा है।"

"पहले भी पूछ चुका हूं। मगर तुमने यह कहकर टाल दिया था कि मैं शायद तुम्हारा वक्तहान लेना चाहता हूं।"

"कोई बात नहीं भगवान। देर आयद दुरुस्त आयद। जो तब नहीं बताया था, अब बताए देता हूं।" वह एक क्षण ठिठका फिर आगे बोला “बात दरअसल यह है कि..।"

वह खामोश हो गया। क्योंकि ठीक तभी एकाएक उसका मोबाइल बजने लगा था।

"लगता है ब्रेक का वक्त हो गया जजमान।” मदारी उसकी ओर देखकर तनिक खेदभरे स्वर में उससे बोला “बस जरा सा इंतजार करो, मैं अभी जिन्न की तरह फिर हाजिर होता हूं।"

अजय ने सहमति में सिर हिलाया। जबकि इस आशंका ने उसे मन ही मन विचलित कर दिया था कि क्या वह इंस्पेक्टर वास्तव में सच जानता था, लेकिन प्रत्यक्षतः वह सुसंयत खड़ा रहा।

मदारी ने यह देखे बिना कि आने वाला फोन किसका था, उसने कॉल रिसीव किया।

“बम-बम भोले ।” उसने अपने अंदाज में फोन पर उपस्थिति दर्शाई। दूसरी तरफ से जल्दी-जल्दी कुछ कहा गया, जिसे अजय नहीं सुन सका। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मदारी के चेहरे के हाव-भाव एकदम से चेंज हो गए। उसकी आंखों में एक सहसा एक लहर सी आई और चली गई।

अजय अपलक उसे ही देख रहा था।

“क...क्या हुआ इंस्पेक्टर?" मदारी ने मोबाइल जैसे ही कान से हटाया, उसने उत्सुक भाव से पूछा “कोई खास बात है।"

"बहुत ही खास।" मदारी बोला। वह बेहद आंदोलित हो उठा था और जल्दबाजी में भी नजर आने लगा था।

“म...मगर हुआ क्या?" अजय का सस्पेंस बढ़ गया था। बात सचमुच ही खास थी, वरना पूरे दिन उसके सिर पर खम्भे की तरह खड़े रहने का इरादा बनाकर आया मालूम होता वह इंस्पेक्टर एकदम से जाने को पर नहीं तोलने लगता।

“खुद ही चलकर अपनी आंखों से देख लो।”

“व्हाट?” अजय चौंका और विस्मित होकर बोला “म...मैं चलकर देख लूं?"

“ऑफकोर्स । कम आन, मूव फास्ट। मैं नीचे आपका इंतजार कर रहा हूं।"

वह अजीबोगरीब फोन आने से पहले मदारी उसे क्या बताने जा रहा था, अब वह बिल्कुल ही भूल गया लगता था। अपने डमरू की ओर भी उसका ध्यान नहीं गया था।

वह फौरन पलटा और तेज-तेज कदमों से चलता हुआ सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।

अजय के जवाब तक का भी सब्र उसने गंवारा नहीं किया था। गोपाल बदरपुर पहुंचा।

अभी सूर्यास्त नहीं हुआ था लेकिन सूर्यदेव ने अपने आरामगाह की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया था और वातावरण में सांझ की सुर्थी छाना शुरू हो गई थी।

गोपाल एक नई स्कार्पियो में वहां पहुंचा था। स्कार्पियो वह खुद चला रहा था।

वह एक पचास साल की उम्र का कद्दावर शख्स था, जो पन्द्रह बरस की जेल काटकर पिछले रोज ही बाहर आया था और जो उस भूखे की तरह था जिसे बरसों बाद खाना खाने को मिला था और अब वह मानो खाने से इंतकाम लेने पर आमादा था। अन्न के हर उस कतरे से इंतकाम ले लेना चाहता था जो इतने बरसों उससे दूर रहा था उसकी भूख शांत करने के लिए उसके पेट में नहीं गया था।

वह स्कार्पियो से नीचे उतरा। उसने अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई। यह देखकर उसकी आंखें फट पड़ी कि हर ओर दूर-दूर तक केवल पक्की और ऊंची इमारतें ही नजर आ रही थीं। वहां का माहौल भी पूरी तरह से बदला हुआ था। हर तरफ आधुनिकता और सम्पन्नता की झलक नजर आ रही थी। निर्धनता, अभाव और हाड़तोड़ मेहनतकशों के लिए वहां कोई अब गुंजाइश बची ही नहीं मालूम पड़ती थी।

कच्ची सड़कें, बजबजाती नालियां, उड़ती धूल, सीलन व कूड़े के ढेर से भरी गलियों का नामोनिशान भी बाकी नहीं बचा था। जहां कभी फटे चीथड़ों में लिपटे बच्चों का हुड़दंग गूंजा करता था, वहां आज अभिजात्य वर्ग के बच्चों की मधुर किलकारियां सुनाई दे रही थीं।

सब कुछ कितना बदल गया था।

गुजरे पन्द्रह साल में दिल्ली कितनी बदल गई थी।

पन्द्रह साल पहले जहां इतनी विशाल स्लम आबादी थी, उसका अब नामोनिशान भी नहीं बचा था।

गोपाल ने शीघ्र ही अपने आश्चर्य पर काबू पा लिया। उसके जेहन में उसका मकसद ताजा हो गया। उसने अपनी जेब से कागज का एक पुर्जा निकालकर उस पर दर्ज नाम व पता पढ़ा, फिर उसे कंठस्थ करके उसने उस बाबत दरयाफ्त किया तो पता चला कि वहां पहुंचने के लिए अभी उसे और आगे जाना था। फिर उससे और आगे मुड़कर दाहिनी ओर जो गली जाती थी, उसी गली में जरा अंदर वह घर मौजूद था जिसका पता वह पूछ रहा था।

गोपाल वापस स्कार्पियो में सवार हो गया था। वांछित मोड़ तक वह निर्विन पहुंच गया।

लेकिन उससे आगे की गली इतनी चौड़ी नहीं थी, जिससे कि उसकी स्कार्पियो जा पाती। आगे उसे पैदल ही जाना था।
उसने स्कार्पियो सड़क के किनारे लगाकर रोक दी फिर उसे लॉक करके वह पैदल ही अंदर गली में दाखिल हो गया।
वह एक मकान के सामने पहुंचकर ठिठका। उसने असमंजस भरे भाव से सिर उठाकर मकान का मुआयना किया।
वह सौ गज के क्षेत्रफल में बना एक चार मंजिला मकान था, जिस पर बाहर लगी नेमप्लेट पर लिखा था एलसी दास।

“बहुत खूब।” वह होठों ही होठों में बुदबुदाया। उसके कुरूप चेहरे पर एकाएक व्यंग फैलता चला गया। उसकी खोज पूरी हो गई थी और क्या खूब पूरी हुई थी।

नेमप्लेट के नीचे चार कॉलबेल के बटन लगे थे, जो कि जरूर वहां मौजूद चार अलग-अलग फ्लोर के थे। मुख्य द्वार पर लोहे का औसत आकार का गेट लगा था, जो बंद था और बाहर कोई भी नजर नहीं आ रहा था। उसने एक क्षण सोचा। वह नहीं जानता था कि मकान मालिक एलसी दास किस फ्लोर पर रहता था। फिर भी उसने अंदाज से ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया।

अंदर कहीं कालबेल की मधुर धुन गूंजी, जो उसे भी सुनाई दी। अंदर फौरन हलचल हुई, फिर गेट खुला। वह एक तेईस चौबीस वर्षीया युवती थी, जिसने फंकी स्टाइल की टॉप तथा हॉफ कैफरी पहन रखी थी, जो उसके घुटनों पर ही खत्म हो जाती थी। घुटनों से नीचे उसकी दूध जैसी गोरी-गुदाज टांगें स्पष्ट नुमायां हो रही थीं।

लड़की बेहद हसीन थी इतनी ज्यादा कि गोपाल का मुंह भाड़ की तरह खुल गया था। वह पलकें झपकाये बिना अपलक उसे देखने लगा था।

"हैल्लो।” तभी हसीना की खनकती आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी तंद्रा भंग हुई। वह कह रही थी “फरमाइए।"

एक पल के लिए गोपाल बौखला गया, फिर वह लगभग फौरन ही संभला।
“द...दास ।” वह आंखों ही आंखों से लड़की की खूबसूरती को पीता हुआ बोला। उसके अंदर दबी हसरतों का एक धीमा-धीमा तूफान अंगड़ाइयां लेने लगा था जो शायद वासना का तूफान था। उसने अपने मनोभावों को दबाकर आगे जोड़ा दास साहब से मिलना है। क...क्या वे घर पर हैं?"

“आप कौन हैं?"

कमबख्त एक बार पहलू में तो आ, फिर मेरे बताए बिना खुद ही मालूम हो जाएगा कि मैं कौन हूं उसका दिल बोला, जिसमें वासना के ना जाने कितने कीड़े गिजबिजाने लगे थे।

“आ...आपने कुछ कहा?” हसीना की खनकती आवाज फिर उसके कानों में पड़ी।

"द..दास।” वह जल्दी से बोला। फिर उसने संभलकर फौरन आगे जोड़ा “गोपालदास ! मेरा नाम गोपालदास है। द...दास साहब का पुराना दोस्त हूं।"

उस बात ने माकूल असर दिखाया था। हसीना के चेहरे पर नरमी झलकने लगी।

“प..पापा घर पर ही हैं।” फिर वह जब इस बार बोली तो उसके लहजे में कोमलता आ गई थी “अंदर आ जाइए। मैं उन्हें बुलाती हूं।"

उसने गोपाल को ले जाकर करीने से सजे ड्राइंगरूम में बिठाया, जिसकी साज-सज्जा देखकर ही गोपाल की छाती पर सांप लोटने लगा।

हसीना अपने भारी नितम्ब झुलाती हुई चली गई।

गोपाल पीछे उसकी बलखाती कमर को तब तक घूरता रहा, जब कि कि वह कमरे से बाहर जाकर दिखाई देना बंद न हो गई।

उस वक्त उसने कैसे खुद को रोका था, वही जानता था । बड़ी मुश्किल से उसने अंदर उमड़ते जज्बातों पर काबू पाया था और अपने अंदर उमड़ते लड़की पर झपट पड़ने वाले वहशी ख्याल को झटका था।

लेकिन लड़की का बला का हसीन चेहरा रह-रहकर उसकी आंखों के सामने कौंध रहा था और उसकी धड़कनों को अनियंत्रित कर रहा था।

तभी एक कसरती जिस्म वाले शख्स ने वहां कदम रखा, जो गोपाल का ही हमदम था और जिसने ठेठ देहाती अंदाज में कुर्ता, लुंगी पहन रखा था।

पन्द्रह साल के फासले के बावजूद गोपाल ने उसे फौरन पहचान लिया।

वह वही आदमी था, जिसकी तलाश उसे थी। उसे पहचानते ही गोपाल के काले, भद्दे होठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान फैलती चली गई। जबकि उसे देखते ही तहमदधारी ठिठक गया था और उसे पहचानने की कोशिश करने लगा था। उसके चौड़े चेहरे पर कशमकश के भाव आ गए थे।
 
"हल्लो लक्की।” गोपाल अपने होठों पर भेदभरी मुस्कान सजाकर व्यंगात्मक भाव से बोला “कैसा है।"

अपने लिए 'लक्की' का सम्बोधन हथोड़े की तरह लुंगीधारी शख्स के जेहन से टकराया था। उसके जेहन में एकाएक फ्लैश सा चमका था और फिर अचानक ही सब कुछ याद आता चला गया।

“ग...गोपाल।” उसके होठों से हठात निकला।

“शुक्र है कमीने कि तूने मुझे पहचान लिया।” गोपाल की व्यंगात्मक मुस्कान और गहरी हो गई थी “वरना मुझे अंदेशा
था कि तू मुझे पहचानेगा ही नहीं या फिर पहचानकर भी अंजान बन जाएगा।"

तहमदधारी के चेहरे पर एकदम से कई रंग आए और आकर चले गए। फिर वह एकदम से पलटा और उसने फुर्ती से कमरे का दरवाजा बंद करके अंदर से चिटकनी चढ़ा दी। गैलरी साइड में खुलने वाली खिड़की के पट को भी उसने जल्दी से बंद कर दिया। फिर वह वापस गोपाल की ओर पलटा और उसके करीब पहुंचा।

“अरे लक्की...” तभी गोपाल बोला। उसके लहजे में इस बार गहरा व्यंग उभरा था “तू मुझसे इतना डर क्यों रहा है? मैं तो तेरा दोस्त हूं पुराना बहुत पुराना दोस्त। मैं तुझे भला कोई नुकसान थोड़े ही न पहुचाऊंगा कुत्ते के पिल्ले ।”

वह अल्फाज उसने हालांकि शांति से कहे थे लेकिन उसके लहजे में ऐसा सर्द अहसास छिपा था कि तहमदधारी दास न चाहते हुए भी व्याकुल हो उठा था।

“ध...धीरे बोलो।" वह दबे स्वर में बोला “यह मेरा घर है।"

“अच्छा ।"

“और मुझे लक्की के नाम से भी मत बुलाओ प्लीज।"

"तो फिर किस नाम से बुलाऊं तुझे हरामी?"

"द...दास।"

"क्या?"

"यहां लोग मुझे दास साहब कहकर बुलाते हैं। तुम मुझे केवल दास कहकर बुला सकते हो।"

“क्यों नहीं सुअर की औलाद। वैसे इस एलसी दास से क्या बनता है?"

वह हिचकिचाया।

“बोल मेरे चूजे ।” उसने उसे बड़ी मुहब्बत से पुचकारा “मेरे सवाल का जवाब दे।”

“ल...लोकेशचंद्र दास।"

"अरे वाह।” वह उछल पड़ा था “क्या फंटूश नाम है यार यह तो। नजर न लग जाये कहीं किसी मरदूद की।"

लोकेशचंद्र दास उर्फ लक्की कुछ नहीं बोला। वह केवल व्याकुल भाव से पहलू बदलता रहा। उसकी हालत उस वक्त, उस मेमने से अलग नहीं थी जिसके सामने कि एकाएक भेड़िया आ खड़ा हुआ हो।

“तो तू साला, कुत्ता, कमीना सुअर...।” गोपाल उसकी सांप-छडूंदर जैसी हालत का पूरा मजा लेता हुआ बोला “मवाली, हत्यारा, मोरी का कीड़ा, खालिस हरामजादा बंगाली बाबू बन गया क्योंकि दिल्ली में बंगाली बाबू भरे पड़े हैं। जहां एक बंगाली बनकर खुद को खपा लेना बेहद आसान काम था। है मुर्गी के अंडे।"

“ज...जेल से कब छूटा गोपाल?" दास ने विषय बदला।

“वह फुलझड़ी तेरी बेटी है?” उसेन जवाब देने के बजाय सवाल किया “जिसने अभी दरवाजा खोला और मुझे रिसीव किया था।"

“ह...हां।” उसकी बेचैनी और ज्यादा बढ़ गई थी। वह बुरी तरह आशंकित और फिक्रमंद हो उठा था। उसने बड़ी कठिनाई से जवाब दिया और सशंक भाव से गोपाल को देखने लगा था।

“क्या गजब की चीज पैदा किया है तूने स्साले सड़े टमाटर। बालीवुड में पहुंच जाएगी तो सारी टॉप की हीरोइनें पनाह मांग जाएंगी। एक ही है या ऐसी और भी कोई आयटम ढूंढ निकाली है।"

“ब...बस एक ही है।”

“नाम क्या है उस फुलझड़ी का?"

“सु...सुगंधा।"

“वाह।” उसने चटखारा लिया “सुगंध ही सुगंध फैल गई हर ओर। खुशबुओं के मेले लग गए। पढ़ रही है या पढ़ चुकी है?"

“अभी एमबीए किया है।"

“यानि कि नौकरी करती है?"

“नहीं। उसे यहां की नौकरी पसंद नहीं।"

"तो फिर?”

"उसे दुनिया घूमने का शौक है। अमेरिका जाना चाहती है। चुन-चुनकर वह सारे रिक्रूटमेंट अटेंड कर रही है, जो अमेरिका में बसने का उसका सपना पूरा कर सकते हैं।"

“बधाई हो बासी अंडे। तेरी कुड़ी तो तेरे से भी दस कदम आगे निकल गई।

“धीरे बोल गोपाल, कोई सुन लेगा।"

“बीबी जिंदा है या मर गई?" उसकी फरियाद पर गोपाल ने जरा सी भी तवज्जो नहीं दी थी।

“म..मर गई। दो साल हो गए मरे हुए।"

“अच्छा हुआ। मैं एक और खून करने से बच गया।"
 
“ए...एक और का क्या मतलब? क्या तू पहले कोई खून कर चुका है?"

“पहले कब?"

“म...मेरा मतलब जेल से छूटने के बाद से था?"

उसके होठों पर जहर बुझी मुस्कराहट उभरी।
दास विचलित हो उठा। उसका हौसला जवाब देने लगा था।

"त...तू यहां क्यों आया है गोपाल ?" उसने किसी तरह हौसला जुटाकर पूछा।

“काफी ठाट हैं तेरे तंदूरी मुर्गे?" गोपाल ने फिर उसका सवाल घोंट दिया था “करता क्या है? पुराने धंधों को छोड़े तो तुझे शायद जमाना हो गया?"

“म...मेरा धंधा आज बहुत स्ट्रेट है?"

“जरा बता तो सही कि आज तेरा वह स्ट्रेट धंधा क्या है और हां, विश्वास कर, मैं तेरे उस स्ट्रेट धंधे को नजर नहीं लगाऊंगा?"

“य...यह मेरा अपना घर है और दिल्ली के ऐसे इलाके में जिसके पास खुद की इतनी बड़ी बिल्डिंग हो, उसे कुछ करने की जरूरत नहीं होती। एक-एक कमरे का पांच-पांच हजार रुपया महीना किराया आता है। महीने का टोटल सत्तर हजार से ऊपर बैठता है।”

"बल्ले भई। क्या किस्मत पाई है तूने भी। बैठकर खा रहा है।”

“ऐसा ही समझ लो।”

“अ...और मैं वहां जेल में सड़ रहा था। पिछले पन्द्रह सालों से ऐड़ियां रगड़ रहा था।” उसने दांत किटकिटाए “सच-सच बताना देशी सुअर, बीते पन्द्रह सालों में क्या एक बार भी तुझे मेरी याद नहीं आई?"

"क...कौन कहता है कि मुझे तेरी याद नहीं आई?"

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“यानि कि आई। फिर भी एक बार भी जेल में आकर मुझसे मिलना गंवारा नहीं किया। मेरे बार-बार खबर भेजने के बाद भी तू मुझसे मिलने नहीं आया। सोचा होगा कि मैं अब कहां जेल से बाहर आने वाला था। पन्द्रह साल जैसे कभी खत्म ही नहीं होने वाले थे और मैं वहीं आंखें मूंद लेने वाला था।"

“म...मैं..."

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“लक्की, तू मेरे गैंग का आदमी था मेरा सबसे ज्यादा खास था। हम दोनों ने साथ मिलकर बहुत गुल खिलाए थे। याद है तुझे या फिर भूल गया?"

“ह..हां। मैं इससे कहां इंकार कर रहा हूं लेकिन तुम्हारे जेल जाने के बाद सारा गैंग बिखर गया था। हम सब पुलिस के खौफ से अंडरग्राउंड हो गए थे, फिर सबने अपना-अपना रास्ता ढूंढ लिया था। ऐसे में मैं क्या करता?"

“बहुत कुछ कर सकता था। ऐसे में अगर उस वक्त तुम सारे के सारे हरामखोर खौफजदा न हुए होते और तुम सारे कमीने, कुत्ते, हरामियों ने थोड़ा सा हिम्मत से काम लिया होता तो मैं इतनी लम्बी सजा से बच सकता था और दो-चार साल की जेल काटकर बाहर आ जाता।"
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“य...यह नामुमकिन था गोपाल ।” दास के लहजे में दृढ़ता उभरी “तुम्हारा केस बहुत मजबूत था।"

“केस को मजबूत और कमजोर पुलिस बनाती है। वह अगर चाहे तो मजबूत से मजबूत केस भी पलक झपकते अदालत में ढेर हो सकता है और कमजोर केस मील का पत्थर बन सकता है। मैं क्या कह रहा हूं कुछ समझ में आया विलायती गधे।"

“फि...फिर भी मदद तो तुम्हें आखिरकार हासिल हो गई थी।" “ठहर जा... हरामी...।” गोपाल एकाएक लाल कपड़ा दिखाए सांड की तरह भड़का “जो मदद हासिल हुई थी, वह क्या मुझे तेरे किए हासिल हुई थी?"

“व...वह...।” उसका दिल जोर से लरजा। वह अपनी बात पूरी न कर सका और होंठों पर जुबान फिराने लगा।

“वह मदद मुझे मेरे गैंग से हासिल नहीं हुई थी।” गोपाल अपने एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला “वह कहीं और से ही हासिल हुई थी। हासिल क्या हुई थी, मैंने जबरदस्ती गला दबाकर वह मदद हासिल की थी ब्लैकमेल करके हासिल की थी। क्योंकि इसके अलावा उस वक्त मेरे पास और कोई रास्ता नहीं बचा था।"

“कि...किसको ब्लैकमेल किया था तु..तुमने?”

" जानकी लाल को।" उसने एक क्षण उसे घूरा फिर बोला “याद आया कुछ?"

“ह..हां।” उसने फंसे कंठ से स्वीकार किया “याद आया।"

“असल में जानकी लाल मेरा क्लाइंट था।" वह जरा ठहरकर बोला “एक काम किया था मैंने उसके लिए। यह अलग बात है कि उस काम की मैं उससे भरपूर कीमत ले चुका था। और अपने क्लाइंट से दगा करना मेरा उसूल नहीं, फिर भी मैंने उस वक्त जो कुछ भी किया, मरता क्या न करता वाली हालत में किया था।"

“तुम्हें अ..अफसोस हो रहा है?"

“ काहे का अफसोस। अफसोस तो तब होता जबकि मैंने उसे ब्लैकमेल न किया होता। मेरा वह क्लाइंट तो मुझे खूब फला। मैंने तो जेल में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। जेल के अंदर रहकर भी उसे ब्लैकमेल करता रहा हूं।"

“ज..जेल में रहकर भी तुम उसे ब्लैकमेल कर रहे हो?" वह आश्चर्य से बोला

“और क्या? वहीं तो मुझे ज्यादा रुपयों की जरूरत थी। छप्परफाड़ रोकड़े की जरूरत थी?"

“ज..जेल में?"

“और क्या रस्साले जंगली भैंसे, वरना जेल की चक्की पीसना किसे मंजूर होने वाला था। वहां का जानवरों वाला खाना किसके हलक में उतरने वाला था। वहां का...।"

“म...मैं समझ गया। लेकिन तुम्हारे पास भी तो बहुत पैसा था लाखों रुपया था, उसका क्या हुआ?"

तब पहली बार उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव आए थे।

“व..वह सारा रुपया कहां गया?" दास ने अपना सवाल दोहराया। “बेईमानी हो गया।"

“क...क्या?” किसने बेईमानी किया?"

“और कौन करेगा?" उसके जबड़े कस गए। वह अपने होंठ चबाता हुआ बोला “उसी हरामजादे ने किया, जो अपने गैंग का खजाना संभालता था उसका हिसाब-किताब रखता था?"

“वही कुत्ता।” उसने नफरत से दिया “हरामी के बीज ने पासा पलटा देख ऐसा फटका मारा कि आज तक हाथ ही नहीं
आया। आना-पाई भी नहीं छोड़ा कमीने ने। सब झाडू फेर गया। कोई खबर है तुझे उसकी?”

“स..साबिर की? नहीं।”
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“सच कह रहा है न? झूठ तो नहीं बोल रहा मुझसे?"

“न...नहीं। एक बार उस दुनिया से किनारा करने के बाद मैंने फिर पलटकर उस तरफ नहीं देखा। तुम्हें भी तो मैं लगभग
भूल ही गया था।"

“मेरे साथ मारी गई भांजी में उसके साथ तूने अपना हिस्सा तो नहीं बंटा लिया?"

"खामखाह।" उसने विरोध जताया।

“यह इतनी ऊंची बिल्डिंग तेरा बाबा वसीयत करके मरा था क्या तेरे नाम? यह करोड़ से ऊपर की जगह क्या हराम में हासिल हो गई थी?"

“करोड़ की तो यह आज है। पन्द्रह बरस पहले तो कौड़ियों के मोल भी कोई नहीं पूछता था।"

"अच्छा ।"

“और पन्द्रह बरस पहले मैंने इसे बस दो फ्लोर ही बनवाया था जो कि केवल दो लाख में बन गया था। और इतना रुपया तो मेरे पास वैसे ही था। आगे की बिल्डिंग इससे हासिल होने वाली किराये की रकम से ही बनी है।"

“यानि कि तूने भांजी में हिस्सा नहीं बंटाया? फिर भी जुर्म तो तूने किया है गुनाहगार तो तू मेरा बराबर है।” वह एकाएक ठिठका। उसने अपनी जेब से एक रिवॉल्वर सामने सेंटर टेबल पर रखा कि दास को उसका बखूबी दीदार हो पाता, फिर वह अर्थपूर्ण स्वर में बोला “इसे पहचानता है या इसे भूल गया।"

दास का चेहरा पीला पड़ गया।

“इ...इसे अंदर रख लो.।” वह घिघियाया सा बोला “प्लीज।"

“अरे, तू भी हद कर रहा है।” वह खासे नाटकीय स्वर में बोला “इसे अंदर ही रखना होता तो फिर मैंने बाहर ही क्यों निकाला होता। और अगर मैंने इसे तेरी फरियाद पर अंदर रख लिया तो फिर गुनाहगार को सजा कैसे दूंगा।”

"त...तुम्हारा गुनाहगार तो साबिर है, जिसने तुम्हें धोखा दिया तुमसे दगाबाजी की। तुम्हारा सारा रुपया हड़प कर गया। म..मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। मैं तुम्हारा गुनाहगार नहीं हूं।"

“साबिर ने जो किया उसकी सजा बहुत भयानक होगी इतनी ज्यादा भयानक कि शायद तुझे यकीन नहीं आएगा। तेरी सजा इतनी भयानक नहीं होगी क्यों कि तेरा गुनाह छोटा है।"

“न...नहीं... गोपाल तुम ऐसा नहीं करोगे।"

“करूंगा नहीं क्या? बस समझ ले कि हो ही गया।” उसने रिवॉल्वर उठाकर उसकी ओर तान दिया, जिसकी नाल पर
साइलेंसर लगा था “एक दिन, दो कत्ल ।"

उसका हलक सूख गया। उसने इस तरह गोपाल को देखा जैसे कि हलाल होने को तैयार बकरा कसाई को देखता है।

“अभी मैंने तुझे बताया था कि एक कल मैं करके आया हूं।" सहसा गोपाल बोला “जानता है, वह बदनसीब कौन था जो मेरे हाथों कत्ल हुआ।”

"क...कौन, कौन था वह?"

“मेरा शुभचिंतक, मेरा मददगार, मेरा मोहसिन ।”

"ज.. जानकी लाल ।"

“वही। बहुत बड़ा आदमी बन गया है कमबख्त । आज वह...”

“बड़ा आदमी तो वह पहले भी था। नहीं तो तुम्हारी मदद कैसे करता? तुम्हें इतना रुपया कैसे देता?" ।

“स्साले मुर्ग मुसल्लम, आज वह अरबपति बन गया है। सारी दिल्ली उसका नाम जानती है। तूने भी जरूर सुना होगा?"

“क...कहीं तुम...।” दास एकदम से चिहुंककर बोला
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“जानकी लाल बिल्डर की बात तो नहीं कर रहे?"

"देखा।” वह विजयी भाव से बोला “मैंने कहा था न कि तूने भी उसका नाम जरूर सुना होगा। देख, कितना सही कहा था मैंने।"
 
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