desiaks
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प्रीत की ख्वाहिश
written by Ashok
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मेला ..........
अपने आप में एक संसार को समेटे हुए, तमाम जहाँ के रंग , रंग बिरंगे परिधानों में सजे संवरे लोग . खिलोनो के लिए जिद करते बच्चे, चाट के ठेले पर भीड , खेल तमाशे . मैं हमेशा सोचता था की मैं मेला कब देखूंगा. और मैं क्या मेरी उम्र के तमाम लोग जो मेरे साथ बड़े हो रहे थे कभी न कभी इस बारे में सोचते होंगे जरुर . और सोचे भी क्यों न मेरे गाँव मे कभी मेला लगता ही नहीं था ,
पर आज मेरी मेले जाने की ख्वाहिश पूरी होने वाली थी , कमसेकम मैं तो ऐसा ही सोच रहा था .मैं रतनगढ़ जा रहा था मेला देखने . इस मेले के बारे में बहुत सुना था , और इस बार मैंने सोच लिया था की चाहे कुछ भी हो जाये मैं मेला देख कर जरुर रहूँगा. पर किसे पता था की तक़दीर का ये एक इशारा था मेरे लिए , खैर. साइकिल के तेज पैडल मारते हुए मैंने जंगल को पार कर लिया था जो मेरे गाँव और रतनगढ़ को जोड़ता था ,
धड़कने कुछ बढ़ी सी थी , एक उत्साह था और होता क्यों न. मेला देखने का सपना जैसे पूरा सा ही होने को था . जैसे मेरी आँखे एक नए संसार को देख रही थी . एक औरत सर पर मटके रखे नाच रही थी , कुछ लोग झूले झूल रहे थे कुछ चाट पकोड़ी की दुकानों पर थे तो कुछ औरते सामान खरीद रही थी एक तरफ खूब सारी ऊंट गाड़िया , बैल गाड़िया थी तरह तरफ के लोग रंग बिरंगे कपडे पहने अपने आप में मग्न थे. और मैं हैरान . हवा में शोर था, कभी मैं इधर जाता तो कभी उधर, एक दुकान पर जी भर के जलेबी , बर्फी खायी . थोड़ी नमकीन चखी.
मैं नहीं जानता था की मेरे कदम किस तरफ ले जा रहे थे .अगर घंटियों का वो शोर मेरा ध्यान भंग नहीं कर देता. उस ऊंचे टीले पर कोई मंदिर था मैं भी उस तरफ चल दिया . सीढियों के पास मैंने परसाद लिया और मंदिर की तरफ बढ़ने लगा. सीढियों ने जैसे मेरी सांस फुला दी थी. एक बिशाल मंदिर जिसके बारे में क्या कहूँ, जो देखे बस देखता रह जाये. बरसो पुराने संगमरमर की बनाई ये ईमारत . मैं भी भीड़ में शामिल हो गया . तारा माता का मंदिर था ये. पुजारी ने मेरे हाथो से प्रसाद लिया और मुझे पूजन करने को कहा.
“मुझे यहाँ की रीत नहीं मालूम पुजारी जी ” मैंने इतना कहा
पुजारी ने न जाने किस नजर से देखा मुझे और बोला - किस गाँव के हो बेटे .
मैं- जी यहीं पास का .
पुजारी- मैंने पूछा किस गाँव के हो
मैं- अर्जुन ....... अर्जुनगढ़
पुजारी की आँखों को जैसे जलते देखा मैंने उसने आस पास देखा और प्रसाद की पन्नी मेरे हाथ में रखते हुए बोला- मुर्ख, जिस रस्ते से आया है तुरंत लौट जा , इस से पहले की कुछ अनिष्ट हो जाये जा, भाग जा .
मुझे तिरस्कार सा लगा ये. पर मैं जानता था की मेरी हिमाकत भारी पड़ सकती है तो मंदिर से बाहर की तरफ मुड गया मैं,. मेरी नजर सूरज पर पड़ी जो अस्त होने को मचल रहा था . उफ्फ्फ्फफ्फ्फ़ कितना समय बीत गया मुझे यहाँ ..........................
मैंने क्यों बताया गाँव का नाम , मैं कोई और नाम भी बता सकता था अपने आप से कहाँ मैंने . . अपने आप से बात करते हुए मैंने आधा मेला पार कर लिया था की तभी मेरी नजर शर्बत के ठेले पर पड़ी तो मैं खुद को रोक नहीं पाया .
मैंने ठेले वाले को एक शर्बत के लिए कहा ही था की किसी ने मुझे धक्का दिया और साइड में कर दिया .
“पहले हमारे लिए बना रे ”
मैंने देखा वो पांच लड़के थे , बदतमीज से
“भाई धक्का देने की क्या जरुरत थी ” मैंने कहा