Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश - SexBaba
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Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश

desiaks

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प्रीत की ख्वाहिश

written by Ashok
1

मेला ..........

अपने आप में एक संसार को समेटे हुए, तमाम जहाँ के रंग , रंग बिरंगे परिधानों में सजे संवरे लोग . खिलोनो के लिए जिद करते बच्चे, चाट के ठेले पर भीड , खेल तमाशे . मैं हमेशा सोचता था की मैं मेला कब देखूंगा. और मैं क्या मेरी उम्र के तमाम लोग जो मेरे साथ बड़े हो रहे थे कभी न कभी इस बारे में सोचते होंगे जरुर . और सोचे भी क्यों न मेरे गाँव मे कभी मेला लगता ही नहीं था ,

पर आज मेरी मेले जाने की ख्वाहिश पूरी होने वाली थी , कमसेकम मैं तो ऐसा ही सोच रहा था .मैं रतनगढ़ जा रहा था मेला देखने . इस मेले के बारे में बहुत सुना था , और इस बार मैंने सोच लिया था की चाहे कुछ भी हो जाये मैं मेला देख कर जरुर रहूँगा. पर किसे पता था की तक़दीर का ये एक इशारा था मेरे लिए , खैर. साइकिल के तेज पैडल मारते हुए मैंने जंगल को पार कर लिया था जो मेरे गाँव और रतनगढ़ को जोड़ता था ,

धड़कने कुछ बढ़ी सी थी , एक उत्साह था और होता क्यों न. मेला देखने का सपना जैसे पूरा सा ही होने को था . जैसे मेरी आँखे एक नए संसार को देख रही थी . एक औरत सर पर मटके रखे नाच रही थी , कुछ लोग झूले झूल रहे थे कुछ चाट पकोड़ी की दुकानों पर थे तो कुछ औरते सामान खरीद रही थी एक तरफ खूब सारी ऊंट गाड़िया , बैल गाड़िया थी तरह तरफ के लोग रंग बिरंगे कपडे पहने अपने आप में मग्न थे. और मैं हैरान . हवा में शोर था, कभी मैं इधर जाता तो कभी उधर, एक दुकान पर जी भर के जलेबी , बर्फी खायी . थोड़ी नमकीन चखी.

मैं नहीं जानता था की मेरे कदम किस तरफ ले जा रहे थे .अगर घंटियों का वो शोर मेरा ध्यान भंग नहीं कर देता. उस ऊंचे टीले पर कोई मंदिर था मैं भी उस तरफ चल दिया . सीढियों के पास मैंने परसाद लिया और मंदिर की तरफ बढ़ने लगा. सीढियों ने जैसे मेरी सांस फुला दी थी. एक बिशाल मंदिर जिसके बारे में क्या कहूँ, जो देखे बस देखता रह जाये. बरसो पुराने संगमरमर की बनाई ये ईमारत . मैं भी भीड़ में शामिल हो गया . तारा माता का मंदिर था ये. पुजारी ने मेरे हाथो से प्रसाद लिया और मुझे पूजन करने को कहा.

“मुझे यहाँ की रीत नहीं मालूम पुजारी जी ” मैंने इतना कहा

पुजारी ने न जाने किस नजर से देखा मुझे और बोला - किस गाँव के हो बेटे .

मैं- जी यहीं पास का .

पुजारी- मैंने पूछा किस गाँव के हो

मैं- अर्जुन ....... अर्जुनगढ़

पुजारी की आँखों को जैसे जलते देखा मैंने उसने आस पास देखा और प्रसाद की पन्नी मेरे हाथ में रखते हुए बोला- मुर्ख, जिस रस्ते से आया है तुरंत लौट जा , इस से पहले की कुछ अनिष्ट हो जाये जा, भाग जा .

मुझे तिरस्कार सा लगा ये. पर मैं जानता था की मेरी हिमाकत भारी पड़ सकती है तो मंदिर से बाहर की तरफ मुड गया मैं,. मेरी नजर सूरज पर पड़ी जो अस्त होने को मचल रहा था . उफ्फ्फ्फफ्फ्फ़ कितना समय बीत गया मुझे यहाँ ..........................

मैंने क्यों बताया गाँव का नाम , मैं कोई और नाम भी बता सकता था अपने आप से कहाँ मैंने . . अपने आप से बात करते हुए मैंने आधा मेला पार कर लिया था की तभी मेरी नजर शर्बत के ठेले पर पड़ी तो मैं खुद को रोक नहीं पाया .

मैंने ठेले वाले को एक शर्बत के लिए कहा ही था की किसी ने मुझे धक्का दिया और साइड में कर दिया .

“पहले हमारे लिए बना रे ”

मैंने देखा वो पांच लड़के थे , बदतमीज से

“भाई धक्का देने की क्या जरुरत थी ” मैंने कहा
 
उन लडको ने मुझे घूर के देखा , उनमे से एक बोला - क्या बोला बे.

मैं- यहीं बोला की धक्का क्यों दिया

मेरी बात पूरी होने से पहले ही मेरे कान पर एक थप्पड़ आ पड़ा था और फिर एक और घूंसा

“साले तेरी इतनी औकात हमसे सवाल करेगा, तेरी हिम्मत कैसे हुई आँख मिलाने की, एक मिनट . हमारे गाँव का नहीं है तू. नहीं है तू . पकड़ो रे इसे ” जिसने मुझे मारा था वो चिल्लाया .

मैंने उसे धक्का सा दिया और भागने लगा तभी उनमे से एक लड़के ने मारा मुझे किसी चीज़ से . मैं चीख भी नहीं पाया और भागने लगा . मेरी चाह मुझ पर भारी पड़ने वाली थी . गलिया बकते हुए वो लड़के मेरे पीछे भागने लगे, मेले में लोग हमें ही देखने लगे जैसे. साँस फूलने लगी थी , मेरी साइकिल यहाँ से दूर थी और गाँव उस से भी दूर ........ मैं पूरी ताकत लगा के भाग रहा था की तभी मुझे लगा की कुछ चुभा मुझे , तेज दर्द ने हिला दिया मुझे पर अभी लगने लगा था की जैसे वो मुझे पकड़ लेंगे. मैंने एक मोड़ लिया और तभी किसी हाथ ने मुझे पकड़ कर खींच लिया .मैं संभलता इस से पहले मैंने एक हाथ को अपने मुह पर महसूस किया

स्स्श्हह्ह्ह्हह चुप रहो .

तम्बू के अँधेरे में मैंने देखा वो एक लड़की थी .

“चुप रहो ” वो फुसफुसाई

मैं अपनी उलझी साँस पर काबू पाने की कोशिश करने लगा. बाहर उन लडको के दौड़ने की आवाजे आई ......

कुछ देर बाद उस लड़की ने मेरे मुह से हाथ हटाया और तम्बू के बाहर चली गयी , कुछ देर बाद वो आई और बोली- चले गए वो लोग.

“शुक्रिया ” मैंने कहा.

उसने ऊपर से निचे मुझे देखा और पास रखे मटके से एक गिलास भर के मुझे देते हुए बोली- पियो

बेहद ठंडा पानी जैसे बर्फ घोल रखी हो और शरबत से भी ज्यादा मिठास .

“थोड़ी देर बाद निकलना यहाँ से , अँधेरा सा हो जायेगा तो चले जाना अपनी मंजिल ”

“देर हो जाएगी वैसे ही बहुत देर हुई ” मैंने कहा

लड़की- ये तो पहले सोचना था न.

मैं अनसुना करते हुए चलने को हुआ ही था की मेरे तन में तेज दर्द हुआ “आई ” मैं जैसे सिसक पड़ा

“क्या हुआ ” वो बोली-

मैं- चोट लगी .

मैंने अपनी पीठ पर हाथ लगाया और मेरा हाथ खून से सं गया.

शायद वो लड़की मेरा हाल समझ गयी थी...

“मुझे देखने दो ”उसने कहा पर मैं तम्बू से बहार निकला और जहाँ मैंने साइकिल छुपाई थी उस और चल पड़ा . मेरी आँखों में आंसू थे और बदन में दर्द .......................

आँख जैसे बंद हो जाना चाहती थी .और फिर कुछ याद नहीं रहा
 
#2

आँख खुली तो सूरज मेरे सर पर चढ़ा हुआ था , पसीने से लथपथ मैं मिटटी में पड़ा था . थोड़ी देर लगी खुद को सँभालने में और फिर दर्द ने मुझे मेरे होने का अहसास करवाया . जैसे तैसे करके मैं अपने ठिकाने पर पहुंचा . पास के खेत में काम कर रहे एक लड़के के हाथ मैंने बैध को बुलावा भेजा .

“सब मेरी गलती है ” मैंने अपने आप से कहा . दो पल के लिए मेरी आँखे बंद हुई और मैंने देखा कैसे उस लड़की ने मुझे थाम लिया था , मेरे होंठो पर उसके हाथ रखते हुए मैंने उसकी आँखों की गहराई देखि थी . चेहरे का तो मुझे ख़ास ध्यान नहीं था , सब इतना जल्दी जो हुआ था पर उन आँखों की कशिश जो शायद भुलाना आसान नहीं था .

“कुंवर , बुलाया आपने ” बैध की आवाज ने मेरी तन्द्रा तोड़ी .

मैं- पीठ में चोट लगी है देखो जरा काका

बैध ने बिना देर किये अपना काम शुरू किया .

“लम्बा चीरा है, एक जगह घाव गहरा है .. ” उसने कहा

मैं- ठीक करो काका

बैध ने मलहम लगा के पट्टी बांध दी और तीसरे दिन दिखाने को कह कर चला गया .मुझे दुःख इस जख्म का नहीं था दुख था इस खानाबदोश जिन्दगी का , ऐसा नहीं था की मेरे पास कुछ नहीं था ,

“कुंवर सा , खाना लाया हूँ ”

मैंने दरवाजे पर देखा, और इशारा करते हुए बोला- कितनी बार कहा है यार, तुम मत आया करो , जाओ यहाँ से .

“बड़ी मालकिन बाहर है ” लड़के ने कहा

मैं बाहर आया और देखा की बड़ी मालकिन यानि मेरी ताईजी सामने थी

“ये ठीक नहीं है कबीर, रोज रोज तुम खाने का डिब्बा वापिस कर देते हो , खाने से कैसी नाराजगी ” ताई ने कहा

मैं- मुझे नहीं चाहिए किसी के टुकड़े

ताई- सब तुम्हारा ही है कबीर,अपने हठ को त्याग दो और घर चलो , तीन साल हो गए है कब तक ये चलेगा ,और ऐसी कोई बात नहीं जिसका समाधान नहीं हो .

मैं- मेरा कोई घर नहीं , आप बड़े लोगो को अपना नाम, रुतबा , दौलत मुबारक हो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.

ताई- तुम्हारी इस जिद की बजह से आने वाला जीवन बर्बाद हो रहा है तुम्हारा, पढाई तुमने छोड़ दी, हमारा दिल दुखता है तुम्हे ये छोटे मोटे काम करते हुए, गाँव भर की जमीं का मालिक यूँ मजदूरी करता है , मेरे बेटे लौट आओ

मैं- ताईजी हम इस बारे में बात कर चुके है ,

ताई - मेरी तरफ देखो बेटे, मैं किसका पक्ष लू उस घर का या तुम्हारा , काश तुम समझ सकते, खैर, खाना खा लेना तुम्हारी माँ ने तुम्हारे मनपसन्द परांठे बनाये है, कम से कम उसका तो मान रख लो .

ताई चली गयी रह गया वो खाने का डिब्बा और मैं, वो मेरी तरफ देखे मैं उसकी तरफ. न जाने क्यों कुछ आंसू आ गये आँख में. ऐसा नहीं था की घर की याद नहीं आती थी , हर लम्हा मैं तडपता था घर जाने को , दिन तो जैसे तैसे करके कट जाता था पर हर रात क़यामत थी, मेरी तन्हाई ,मेरा अकेलापन , और इन बीते तीन साल में क्या कुछ नहीं हो गया था , पर कोई नहीं आया सिवाय ताईजी के .

पर फ़िलहाल ये जिन्दगी थी, जो मुझे किसी और तरफ ले जाने वाली थी .

तीन रोज बाद की बाद की बात है मेरी नींद , झटके से खुल गयी . एक शोर था जानवरों के रोने का मैं ठीक ठीक तो नहीं बता सकता पर बहुत से जानवर रो रहे थे. मेरे लिए ये पहली बार था , अक्सर खेतो में नील गाय तो घुमती रहती थी पर ऐसे जंगली जानवरों का रोना . मैंने पास पड़ा लट्ठ उठाया और आवाजो की दिशा में चल पड़ा. वैसे तो पूरी चाँद रात थी पर फिर भी जानवर दिखाई नहीं दे रहे थे . आवाजे कभी पास होती तो कभी दूर लगती ,

कशमकश जैसे पूरी हुई, अचानक ही सब कुछ शांत हो गया , सन्नाटा ऐसा की कौन कहे थोड़ी देर पहले कोतुहल था शौर था. मैं हैरान था की ये क्या हुआ तभी गाड़ी की आवाज आती पड़ी और फिर तेज रौशनी ने मेरी आँखों को चुंधिया दिया .
 
मैं सड़क के बीचो बीच था , सड़क जो मेरे गाँव और शहर को जोडती थी . गाड़ी के ब्रेक लगे एक तेज आवाज के साथ . .........

“अबे, मरना है क्या , ” ड्राईवर चीखा

मैं- जा भाई .....

तभी पीछे बैठी औरत पर मेरी नजर पड़ी , ये सविता थी , हमारे गाँव के स्कूल की हिंदी अध्यापिका .

मैं- अरे मैडम जी आप, इतनी रात.

मैडम- कबीर तुम, इतनी रात को ऐसे क्यों घूम रहे हो सुनसान में देखो अभी गाड़ी से लग जाती तुम्हे . खैर, आओ अन्दर बैठो.

मैं- मैं चला जाऊंगा .

मैडम- कबीर, बेशक तुमने पढाई छोड़ दी है पर मैं टीचर तो हूँ न.

मैं गाड़ी में बैठ गया.

मैं- आप इतनी रात कहाँ से आ रही थी .

मैडम-शहर में मास्टर जी के किसी मित्र के समारोह था तो वहीँ गयी थी .

मैं- और मास्टर जी .

मैडम- उन्हें रुकना पड़ा , पर मुझे आना था तो गाड़ी की .

मैं- गाँव के बाहर ही उतार देना मुझे.

मैडम- मेरे साथ आओ, मेरा सामान है थोडा घर रखवा देना

अब मैं सविता मैडम को क्या कहता

सविता मैडम हमारे गाँव में करीब १६-१७ साल से रह रही थी , उनके पति भी यहीं मास्टर थे, 38-39 साल की मैडम , थोड़े से भरे बदन का संन्चा लिए, कद पञ्च फुट कोई ज्यादा खूबसूरत नहीं थी पर देखने में आकर्षक थी, ऊपर से अध्यापिका और सरल व्यवहार , गाँव में मान था . मैडम का सामान मैंने घर में रखवाया .

मैडम- बैठो,

मैं बैठ गया. थोड़ी देर बाद मैडम कुछ खाने का सामान ले आई,

मैडम- कबीर, वैसे मुझे बुरा लगता है तुम्हारे जैसा होशियार लड़का पढाई छोड़ दे.

मैं- मेरे हालात ऐसे नहीं है , पिछला कुछ समय ठीक नहीं हैं .

मैडम- सुना मैंने. वैसे कबीर, तुम मेरे पसंदिद्दा छात्र रहे हो , कभी कोई परेशानी हो तो मुझे बता सकते हो. मैं तुम्हारे निजी फैसलों के बारे में तो नहीं कहूँगी पर तुम चाहो तो पढाई फिर शुरू कर लो

मैं- सोचूंगा

मैडम- आ जाया करो कभी कभी .

मैंने मिठाई की प्लेट रखी और सर हिला दिया .

वहां से आने के बाद , मेरे दिमाग में बस एक ही बात घूम रही थी की जानवरों का रोना कैसे अपने आप थम गया और मुझे जानवर दिखे क्यों नहीं , ये सवाल जैसे घर कर गया था मेरे मन में . इसी बारे में सोचते हुए मैं उस दोपहर सड़क के उस पार जंगल की तरफ पहुच गया, शायद वो आवाजे इधर से आई थी या उधर से . सोचते हुए मैं बढे जा रहा था तभी मैंने कुछ ऐसा देखा जो उस समय अचंभित करने वाला था .

भरी दोपहर ये कैसे, और कौन करेगा ऐसा. .........................
 
#3

ये देखना अपने आप में बेहद अजीब था , मेरे सामने एक जलता दिया था , बस एक दिया जो शांत था , कोई और वक्त होता तो मैं ध्यान नहीं देता पर भरी दोपहर में कोई क्यों दिया जलायेगा , जबकि ये कोई मंदिर, मजार जैसा कुछ नहीं था , और सबसे बड़ी बात एक गहरी शांति , हवा जैसे थम सी गयी थी मेरे और उस दिए के दरमियाँ . मैं बस वहां से चलने को ही हुआ था की मेरी नजर उस कागज के छोटे से टुकड़े पर पड़ी .

इस पर मेरा ध्यान ही नहीं गया था , मैंने वो कागज उठाया जिस पर कोई शब्द नहीं लिखा था , कोरा कागज , न जाने क्यों मैंने वो कागज जेब में रख लिया . और वापिस अपने खेतो की तरफ चल पड़ा. दूर से ही मैंने ताई को देख लिया था , जो एक पेड़ के निचे कुर्सी डाले बैठी थी. जैसे ही मैं उनके पास पहुंचा वो बोली- कबीर , कहाँ थे तुम , कब से इंतजार कर रही हूँ मैं तुम्हारा .

मैं- मैं इतना भी महत्वपूर्ण नहीं की मेरा इंतजार करे कोई .

ताई- फिर भी मन कर रही थी, सुनो, कल मेरे साथ तुम्हे शहर चलना है .

मैं- किसी और को ले जाओ , मेरे पास समय नहीं है

ताई- कबीर, मैंने कहा न कल तुम मेरे साथ शहर चल रहे हो क्योंकि तुम्हारा वहां होना जरुरी है , कल तुम्हे कुछ मालूम होगा

मैंने ताई की बात अनसूनी करना चाहा पर मैं कर रही पाया.

ताई- एक खुशखबरी और बतानी है तुम्हे कर्ण का रिश्ता पक्का हो गया है ,

मैं- मुझे क्या लेना देना

ताई- तुम्हारा बड़ा भाई है वो .

मैंने जैसे ताई का उपहास उड़ाया

कहने को कर्ण मेरा बड़ा भाई था , पर क्या वो मेरा भाई था नहीं, वो एक बिगडैल जिद्दी लड़का था जिसके तन में खून की जगह अहंकार दौड़ रहा था . गाँव भर में कोई ही शायद होगा जिस पर उसने अत्याचार नहीं किया होगा. अपने ख्यालो में खोये हुए जैसे ही मेरी नजर ताई पर पड़ी, मुझे एक अनचाही याद आ गयी, एक कडवा सच .

अचानक ही मेरे मुह से निकल गया - मैं कल चलूँगा आपके साथ ताईजी

पर मैं ये बिलकुल नहीं जानता था की कल मेरे जीवन के एक नए अध्याय की शरूआत होगी , मेरे पतन की शरूआत होगी. अगले दिन मैं पूरी तरह से तैयार था शहर जाने को . ताईजी की गाड़ी में बैठा और हम शहर की तरफ चल दिए.

मैं- पर हम क्यों जा रहे है.

ताई- तुम समझ जाओगे

मैंने अपना सर हल्का सा खिड़की से बाहर निकाल लिया और हवा को महसूस करने लगा . बहुत दिनों बाद मैं कोई सफ़र कर रहा था. पर ये सकून ज्यादा देर नहीं रहा, लगभग आधी दुरी जाने के बाद गाड़ी झटके खाने लगी और फिर बंद हो गयी.

ताई- इसको भी अभी बिगड़ना था .

मैं- बस से चलते है .

ताइ ने मेरी तरफ देखा . मैं- और नही तो क्या .

थोड़ी देर बाद बस आई पर वो बहुत भरी थी भीड़ थी . जैसे तैसे करके हम दोनों चढ़ गए. गर्मी के मौसम में बस का भीड़ वाला सफ़र, और तभी किसी ने ताई के पैर पर पैर रख दिया,
 
“आई, ईईईई ” ताई जैसे चीख पड़ी . किसी औरत चप्पल या जूते में कील थी या कुछ नुकीला ताई को बड़ी जोर से चुभा था , पैर से खून निकल आया और उन्होंने उसी वक्त बस से उतरने का फैसला किया, मज़बूरी में मैं भी उतर गया.

वो सडक के पास बैठ कर अपने पैर को देखने लगी, ख़राब गाड़ी को कोसने लगी. लगभग बीस मिनट बाद एक टेम्पो आते हुए दिखा . मैंने उसे हाथ दिया तो वो रुका .

मैं- शहर तक बिठा लो , दुगना किराया दूंगा.

टेम्पो वाला- बिठा तो लूँ, पर भाई मैं सामान लेके जा रहा हूँ , जगह थोड़ी कम है पीछे तुम दो लोग हो .

मैं- हम देख लेंगे वो .

टेम्पो वाला- तो फिर बैठ जाओ.

टेम्पो में पीछे की तरफ गत्ते भरे हुए थे. मैं चढ़ा और फिर ताई का हाथ पकड कर खींच लिया. टेम्पो चल पड़ा.

ताई- कबीर, बहुत कम जगह है शहर तक परेशान हो जायेंगे.

मैं- बस की भीड़ से तो सही हैं न .

तभी टेम्पो ने झटका खाया और मैंने ताई की कमर पकड़ ली, पहली बार था जब मैंने किसी औरत को छुआ था . , इतनी कोमल कमर थी ताई की.

ताई- थोड़ी जगह बनाओ , कहीं मैं गिर न जाऊ.

टेम्पो में गत्ते, भरे थे मैंने थोडा सा खिसका कर जगह बनाने की कोशिश की पर बात नहीं बन पा रही थी .

मैं- एक तरीका है ,

ताई- क्या

मैं- मैं बैठ जाता हूँ आप फिर मेरे पैरो पर बैठ जाना

ताई- मैं कैसे ,

मैं- शहर दूर है वैसे भी आपके पर पर लगी है .

ताई को भी और कुछ नहीं सुझा . तो वो बोली- ठीक है .

मैंने अपनी पीठ पीछे गत्ते के बॉक्स पर टिकाई और बैठ गया ताई भी झिझकते हुए मेरे पैरो पर बैठ गयी. ताई का शरीर वजनी था , मेरे पैर दुखने लगे और तभी टेम्पो शायद किसी ब्रेकर पर उछला तो ताई एकदम से मेरी गोद में आ गयी. वो उठने लगी ही थी की तभी फिर से टेम्पो ने झटका लिया और मैंने उनकी कमर को थाम लिया दोनों हाथो से.

मैंने अपनी उंगलियों से ताई की नाभि को सहलाया और वो हल्के से कसमसाई . सब कुछ जैसे थम सा गया था .

ताई के चूतडो की गर्मी को मैंने अपनी जांघो के जोड़ पर महसूस किया. मैं धीरे धीरे उनके पेट को सहलाने लगा था . मैंने महसूस किया की ताई की आँखे बंद थी, मेरे सिशन में मैंने उत्तेजना महसूस की और शायद ताई ने भी .टेम्पो के साथ साथ हमारे बदन भी हिलने लगे थे . मैं उत्तेजित होने लगा था. और फिर मैंने न जाने क्या सोच कर अपने दोनों हाथ ताई की छातियो पर रख दिए. aaahhhhh ताई के होंठो से एक आह सी निकली और मैं उनकी चुचियो को दबाने लगा. .

मेरे लिए ये सब अलग सा अह्सास था मैं अपनी ताई को गोदी में बिठाये उनकी चूची दबा रहा था और वो बिलकुल भी मेरा विरोध नहीं कर रही थी. मेरा लिंग अब पूरी तरह उत्तेजित हो चूका था . उत्तेजना से कांपते हुए मेरे हाथो ने ताई के ब्लाउज के बटन खोल दिए और ब्रा के ऊपर से ही मैं उन उभारो को दबाने लगा. ताई मेरी गोद में मचलने लगी. मैंने हौले से ताई की पीठ को चूमा, कंधो को चूमा और छातियो से खेलने लगा.

तभी जैसे ये सब खत्म हो गया. शहर की हद में पहुच गए थे हम ताई ने मेरे हाथ को हटाया और अपने कपडे सही कर लिए. कुछ देर बाद हम टेम्पो से उतरे , मैंने किराया दिया और चलने को हुआ ही था की वो बोला- भाई मैं लगभग तीन घंटे बाद यही से वापिस जाऊंगा चलो तो मिल लेना. शायद उसे भी दुगने किराये का लालच था .

उसके बाद हम शहर में एक ऑफिस में गए. ये किसी वकील का ऑफिस था.

वकील बड़ी गर्मजोशी से हमसे मिला और फिर बोला- कबीर, देखो तुम्हारे लिए ये थोडा सा अजीब होगा पर मुझे लगता है की अब तुम्हे ये मालूम होना चाहिए.

मैं- क्या

वकील-लोग, अपनी पीढियों को दौलत देते है , जमीन देते है या जो कुछ भी पर तुम्हारे लिए विरासत में ऐसी चीज़ छोड़ी गयी है जिसे कोई क्यों छोड़ेगा, मतलब ये अजीब है .

मैं- पर बताओ तो सही

वकील ने अपनी मेज की दराज से एक पैकेट निकाला और मेरे हाथ पर रख दिया . एक ये छोटा सा पैकेट था. छोटा सा. मैंने उसे खोला और मैं हैरान रह गया. ये कैसे ........................

मतलब ये चीज़ ,,,,,,,,,,,, कैसे ....
 
#4

मेरे हाथ में एक दिया था , मिटटी का दिया , ठीक वैसा ही दिया जिसे मैंने कल जंगल में जलते हुए देखा था, एक दिया था मेरी विरासत. बस एक दिया .

वकील- मुझे समझ नहीं आ रहा की तुम्हारे दादा ने ये दिया क्यों छोड़ा है , एक लाइन की ये अजीब वसीयत क्यों बनाई उन्होंने.

मैं- मुझे नहीं मालूम .

जबकि मेरे अन्दर एक उथल पुथल मची हुई थी, मैं कबीर सिंह, जिसके परिवार के पास न जाने कितनी जमीन थी, कितने काम धंधे थे, आस पास के गाँवो में इतना रुतबा किसी का नहीं था उस कबीर के लिए कोई एक दिया छोड़ गया था जिसकी कीमत शायद रूपये दो रूपये से जयादा नहीं थी. मैं ताई को देखू ताई मुझे देखे . खैर वकील से विदा ली हमने और ताई मुझे एक होटल में ले आई. कुछ खाने की आर्डर दिया .

ताई- कबीर, मुझे कुछ दिन पहले फ़ोन आया था वकील का , पर मुझे ये नहीं मालूम था की पिताजी ऐसा करेंगे

मैं- पर किसलिए,

ताई- कोई तो बात रही होगी.

इस बात से हम वो बात भूल गए थे जो उस टेम्पो में हुई थी , पास वाली खिड़की से आती धुप ताई के चेहरे पर पड़ रही थी , मैंने पहली बार ताई की खूबसूरती को महसूस किया ३७ साल की ताई , पांच सवा पांच फुट के संचे में ढली , भरवां बदन की मालकिन थी , टेम्पो में जो घटना हुई थी , बस ये हो गया था ,मेरी नजर ताई की नजर से मिली और मैंने सर झुका लिया.

ताई- घर पर सब तुम्हे यद् करते है

मैं- पर कोई आया नहीं

ताई- मैं तो आती हूँ न

मैं चुप रहा

ताई- कबीर,

मैं- मेरा दम घुटता है उस नर्क में, सबके चेहरे पर लालच पुता है, एक सड़ांध है उस घर में झूठी शान की, झूठे नियम कायदों की

ताई- वो तुम्हारे पिता है , जिस दिन से तुमने घर छोड़ा है ख़ुशी चली गयी है वहां से

मैं- मैं कभी कर्ण, नहीं बन सकता मैं कभी ठाकुर अभिमन्यु नहीं बन सकता , मुझे नफरत है इस सब से

ताई- कबीर, मैं नहीं जानती की आखिर क्या वो वजह रही थी जिस बात ने हस्ते खेलते घर को बिखेर दिया , बाप बेटे में आखिर ऐसी नफरत की दिवार क्यों खड़ी हो गयी, पर कबीर अपनी माँ के बारे में सोचो, उसके दिल पर क्या गुजरती है वो कहती नहीं पर मैं जानती हु, मेरे बारे में सोचो,

मैं- मेरे नसीब में खानाबदोशी लिखी है ये ही सही , कबीर उस घर में कभी नहीं लौटेगा ,

ताई ने फिर कुछ नहीं कहा.

खाने के बाद हम कुछ कपड़ो की दुकान पर गए ताई ने मेरे लिए कुछ कपडे ख़रीदे. और फिर वापसी के लिए हम उसी जगह आ गए जहाँ टेम्पो वाला था. टेम्पो देखते ही ताई के चेहरे पर आई मुस्कान मेरे से छुप नहीं पाई. अबकी बार टेम्पो में गत्तो की जगह गद्दे भरे थे , माध्यम आकार के गद्दे , टेम्पो में चढ़ने से पहले मैंने ताई को देखा जिनकी आँखों में मुझे एक गहराई महसूस हुई.

जैसे ही टेम्पो चला ताई मेरी गोद में आ गयी , और जो शुरू हुआ था फिर स शुरू हो गया . इस इस बार मैंने ताई की चुचिया पूरी तरह से बाहर निकाल ली और जोर जोर से भींचने लगा ताई ने फिर से अपनी आँखे मूँद ली . कुछ देर बाद ताई थोड़ी सी उठी और अपनी साडी को जांघो पर उठा लिया अब ताई बहुत आराम से अपनी गांड पर मेरे लंड को महसूस कर सकती थी ,

और जो भी हो रहा था उसमे उनकी भी स्वीक्रति थी, एक हाथ से उभारो को मसलते हुए मैं दुसरे हाथ से ताई की चिकनी जांघो को सहलाने लगा था और फिर मैंने ताई के पैरो को अपने हाथो से खोला और ताई की सबसे अनमोल चीज पर अपना हाथ रख दिया ताई के बदन में जैसे हजारो वाल्ट का करंट दौड़ गया , वो आहे भरने लगी थी, सिल्क की कच्छी के ऊपर से मैं ताई की चूत को मसल रहा था.

न जाने कैसे मेरे हाथ अपने आप ये सब करते जा रहे थे जैसे मुझे बरसो से इन सब चीजो का अनुभव रहा हो, मैंने कच्छी को थोडा सा साइड में किया और ताई की चूत को छू लिया मैंने, उफ्फ्फ्फ़ कितनी गर्म जगह थी वो मेरी ऊँगली किसी चिपचिपे रस में सन गयी, तभी टेम्पो मुड़ा और मेरी बीच वाली ऊँगली, ताई की चूत में घुस गयी,

“uffffffffffff कबीर ” ताई अपनी आह नहीं रोक पाई.

मैं समझ गया था ताई को मजा आ रहा है, मैं जोर जोर से ताई की चूत में ऊँगली करने लगा ताई अब ने एक पल के लिए मेरे हाथ को पकड़ा और फिर खुद ही छोड़ दिया. ताई के बदन की थिरकन बढती जा रही थी. तभी ताई मेरी तरफ घूमी और ताई ने अपने होंठ मेरे होंठो पर रख दिए. मेरे मुह में जैसे किसी ने पिघली मिश्री घोल दी हो, ताई ने अपना पूरा बोझ मेरे ऊपर डाल दिया और मेरे होंठ चूसते हुए झड़ने लगी, मेरी हथेली पूरी भीग गयी थी, बहुत देर तक ताई मेरे होंठ चुस्ती रही , मेरी सांसे जैसे अटक गयी थी ,

और जब उन्होंने मुझे छोड़ा तो अहसास हुआ की ये लम्हा तो गुजर गया था पर आगे ये अपने साथ तूफान लाने वाला था , अपनी मंजिल पर उतरने के बाद न ताई ने कुछ कहा न मैंने , वो घर गयी मैं अपने खेत पर.

मेरे हाथ में दिया था , बहुत देर तक मैं सोचता रहा की आखिर क्या खास बात है इसमें , मैंने उसमे तेल डाला और उसे जलाना चाहा पर हैरत देखिये , दिया जला ही नहीं, मैं हर बार प्रयास करता और हर बार बाती रोशन नहीं होती............
 
#५

अजीब सा चुतियापा लग रहा था ये सब , मेरा दादा वसीयत में एक दिया दे गया मुझे किसी को बताये तो भी अपनी ही हंसी उड़े, और चुतिया दिया था के जल ही नहीं रहा था , हार कर मैंने उसे कोने में रख दिया और बिस्तर पर आके लेट गया. ताई के साथ हुई घटना ने मुझे अन्दर तक हिला दिया था , मेरे मन में सवाल था की उन्होंने मुझे रोका क्यों नहीं क्या वो भी मुझसे जिस्मानी रिश्ते बनाना चाहती थी , पहली नजर में मैं कह नहीं सकता था पर टेम्पो में जो हुआ और उनकी सहमती क्या इशारा दे रही थी,

खैर, उस रात एक बार फिर मेरी नींद उन जानवरों के रोने की आवाजो ने तोड़ दी,

“क्या मुसीबत है ” मैंने अपने आप से कहा

एक तो गर्मियों की ये राते इतनी छोटी होती थी की कभी कभी लगता था की ये रत शुरू होने से पहले ही खत्म हो गयी . पर आज मैंने सोच लिया था की मालूम करके ही रहूँगा ये हो क्या रहा है, मैंने अपनी लाठी ली और आवाजो की दिशा में चल दिया. हवा तेज चल रही थी चाँद खामोश था. कोई कवी होता तो ख़ामोशी पर कविता लिख देता और एक मैं था जो इस तनहा रात में भटक रहा था बिना किसी कारन

मुझे ये तो नहीं मालूम था की समय क्या रहा होगा , पर अंदाजा रात के तीसरे पहर का था , मैं नदी के पुल पर पहुँच गया था ये पुल था जो जंगल को अर्जुन्गढ़ और रतनगढ़ से जोड़ता था , और तभी सरसराते हुए जानवरों का एक झुण्ड मेरे पास से गुजरा, इतनी तेजी से गुजरा की एक बार तो मेरी रूह कांप गयी, करीब पंद्रह बीस जानवर थे जो हूकते हुए भाग रहे थे मैं दौड़ा उनके पीछे ,

कभी इधर ,कभी उधर , मैं समझ नहीं पा रहा था की ये सियार ऐसे क्यों दौड़ रहे है और फिर वो गायब हो गए, यूँ कहो की मैं पिछड़ गया था उस झुण्ड से , मैंने खुद को ऐसी जगह पाया जहाँ मुझे होना नहीं था मेरी दाई तरफ एक लौ जल रही थी , न जाने किस कशिश ने मुझे उस लौ की तरफ खीच लिया , और जल्दी ही मैं सीढियों के पास खड़ा था , ये सीढिया माँ तारा के मंदिर की नींव थी , जिस चीज़ ने मुझे यहाँ लाया था वो मंदिर की जलती ज्योति थी , मैं एक बार फिर से रतनगढ़ में था.

दुश्मनों का गाँव, ऐसा सब लोग कहते थे पर क्या दुश्मनी थी ये कोई नहीं जानता था , दोनों गाँवो के लोग कभी भी तीज त्यौहार, ब्याह शादी में शामिल नहीं होते थे, खैर, मैं सीढिया चढ़ते हुए मंदिर में दाखिल हुआ, सब कुछ स्याह स्याह लग रहा था , और एक गहरा सन्नाटा, शायद रात को यहाँ कोई नहीं रहता होगा. मुझे पानी की आवाज सुनाई दी मैं बढ़ा उस तरफ मंदिर की दूसरी तरफ एक छोटा तालाब था , सीढिया उतरते हुए मैं वहां पहुंचा .प्यास का अहसास हुआ मैंने अंजुल भर पानी पिया ही था की

“चन्नन चन ” पायल की आवाज ने मुझे डरा सा दिया . आवाज ऊपर की तरफ से आई थी मैं गया उस तरफ “कौन है बे ” मैं जैसे चिल्लाया

“क्या करेगा तू जानकार” आवाज आई

मैं- सामने आ कौन है तू

कुछ देर ख़ामोशी सी रही और फिर मैंने दिवार की ओट से निकलते साये को देखा, वो साया मेरे पास आया मैंने उन आँखों में देखा, ये आँखे ,, ये आँखे मैंने देखि थी

“तू यहाँ क्या कर रहा है इस वक़्त ” वो बोली

मैं- रास्ता भटक गया था

वो- अक्सर लोग रस्ते भटक जाते है

मैं- तुम यहाँ कैसे ,

वो- मेरा मंदिर है जब चाहे आऊँ जाऊं

मैं- मंदिर तो माता का है

वो- मुर्ख , मेरे बाबा पुजारी है मंदिर के, पास ही घर है मेरा ज्योत देखने आई थी , इसमें तेल डालना पड़ता है कई बार, पर तू यहाँ क्यों, एक मिनट तू चोरी करने आया है न चोर है तू .... अभी मैं बाबा को बुलाती हु.

अब ये क्या है ...........

मैंने उसे पकड़ा और मुह दबा लिया , ये दूसरी बार था जब किसी नारी को छुआ हो मैंने,

“चोर नहीं हूँ, मेरा विश्वास करे तो छोडू ” मैंने कहा
 
उसने मेरी आँखों में देखा और सर हिलाया तो मैंने उसे छोड़ा.

वो- जान निकालेगा क्या

मैं- और जो तूने चोर समझा उसका क्या

वो- कोई भी समझेगा, बे टेम क्यों घूमता है

मैं- आगे से नहीं घुमुंगा, वैसे तेरा शुक्रिया उस दिन के लिए

वो- किस दिन के लिए, ओह अच्छा उस दिन के लिए , वैसे तू भाग क्यों रहा था उस दिन

मैं- झगडा हुआ था उन लडको से

वो- आवारा लड़के है सबसे उलझते रहते है , अच्छा हुआ जो तू उनके हाथ नहीं लगा वर्ना मारते तुझे,

मैं- सही कहा

वो मंदिर के अन्दर गयी और एक थाली लायी, जिसमे कुछ फल थे

वो- खायेगा

मैं- न,

वो- तेरी मर्जी , वैसे तू किस गाँव का है , यहाँ का तो नहीं है

मैं- बताऊंगा तो तू भी दुसरो जैसा ही व्यवहार करेगी

वो- अरे बता न

मैं अर्जुन्गढ़ का

वो- सच में , सुना है काफी अच्छा गाँव है

मैं- तू गयी है वहां कभी

वो- ना रे, चल बहुत बात हुई मैं चलती हु, कही बाबा न आ जाये मुझे तलाशते हुए.

मैं- हाँ , ठीक है , मैं भी चलता हूँ

वो- मंदिरों में लोग दिन में आते है रातो को नहीं , राते सोने के लिए होती है .

मैं- दिन में आ जाऊँगा ,

वो- आ जाना सब आते है ,

मैं- दिन में दुश्मनों को लोग रोकते भी तो है ,

वो- इस चार दिवारी में कोई दुश्मन नहीं , लोग सब कुछ छोड़कर आते है , कभी दिन में आके मन्नत मांगना सब की पूरी होती है तेरी भी होगी .

मैं- तू मिले तो आ जाऊंगा .

वो- परसों ..................... दोपहर ....

मैं मुस्कुरा दिया . न जाने कैसे उस अजनबी लड़की से इतनी बात कर गया मैं , चलते समय मैंने थाली से दो सेब उठाये और रस्ते भर उसके बारे में ही सोचते हुए आ गया, कब जंगल पार हुआ , कब खेत कुछ ध्यान नहीं, ध्यान था तो बस एक बात वो गहरी आँखे
 
#6

दो- तीन दिन गुजर गए , मैं न जाने किस दुनिया में था , कोई होश नहीं कोई खबर नहीं , मुझे इतना जरुर मालूम हुआ था की मेरे भाई की सगाई कर दी है , पर क्या उस से मुझे फर्क पड़ता था , बार बार आँखों के सामने वो लड़की आती थी , जैसे कोई डोर मुझे उसकी तरफ खींच रही थी . आखिरकार मैंने एक बार फिर से रतनगढ़ जाने का निर्णय लिया.

पर इस बार रात में नहीं , क्योंकि हर रात महफूज हो ऐसा भी नसीब नहीं था मेरा, खैर उस शाम मैं रतनगढ़ से थोड़ी ही दूर था , मेरी मंजिल तारा माँ का वो ही मंदिर था , जहाँ मैं उस गहरी आँखों वाली लड़की से मिल सकता था, और हाँ उसका नाम भी पूछना था इस बार, न जाने क्यों मैं उसे अपने से जुड़ा मानता था , जबकि हमारी सिर्फ दो मुलाकाते ही हुई थी और दोनों अलग अलग परिस्तिथियों में.

शाम और रात के बीच जो समय था मैं दूर था थोडा सा मंदिर से और तभी मैंने सामने से एक गाड़ी रफ़्तार से अपनी और आते हुए दिखी, मैं सड़क से उतर गया पर वो गाड़ी दाई तरफ मुड़ी और एक छोटे पेड़ से टकरा गयी. मैं गाड़ी की तरफ भागा पर पहुँचता उस से पहले ही गाड़ी से एक औरत निकली,.

माथे से खून टपक रहा था , हाथ में शराब की बोतल , समझ नहीं आया की नशे से झूम रही थी या दर्द से. वो वहीँ पास में धरती पर बैठ गयी , चोट से बेपरवाह बोतल गले से लगाये कुछ और बूंदे गटक गयी.

मैं उसके पास पंहुचा.

“ठीक तो है आप ” मैंने पूछा

“किसे परवाह है , ” उसने सर्द लहजे में कहा

मैं- आपको चोट लगी है , यहाँ के बैध का पता बताइए मैं ले चलता हु उसके पास आपको

बिखरी जुल्फों को हटा कर उसने मुझे देखा और फिर से पीने लगी. माथे से खून रिस रहा था .मैं समझ गया था की नशे की वजह से उसे स्तिथि का भान नहीं है .

पर तभी वो बोली- मेरी गाड़ी देखो , क्या वो चल पायेगी.

मुझे उसका व्यव्हार अजीब सा लग रहा था जब उसे मरहम-पट्टी की जरुरत थी , गाड़ी की चिंता कर रही थी वो. मैंने देखा गाड़ी को आगे से नुकसान हुआ था पर वो स्टार्ट हो रही थी.मैंने बताया उसे.

वो- मेरे साथ चलो.

उसने मेरा हाथ पकड़ा और गाड़ी में धकेल दिया.

“मैं जिस तरफ कहूँ उधर चलते रहना ” वो बोली

“पर मुझे तो कहीं और जाना है ” मैं बोला

उसने एक गद्दी नोटों की मेरी तरफ फेंकी और बोली- रख ले, और चल

मैं- इन कागज के टुकडो को किसी और के सामने फेकना , तुम्हारी दशा ठीक नहीं है इसलिए साथ चल रहा हूँ , रखलो अपने पैसे.

उसके होंठो पर हसी आ गयी, बोली- बरसो बाद किसी ने मुझे न कहा है .अच्छा लगा

मैं- एक मिनट रुको, मैंने उसके सर को देखा , जहाँ चोट लगी थी, और कुछ नहीं था तो उसकी चुन्नी को कस के बाँध दिया सर पर, तभी मेरी नजर सूट के अन्दर उसकी गोलाइयों पर पड़ी. बेहद नर्म होंगे, मैं इतना ही सोच पाया.

“कुछ देर के लिए खून बंद हो जायेगा ”

पर उसे कहाँ ध्यान था , उसे तो और नशा करना था , बीच बीच में वो बस बोलती रही इधर लो- उधर लो और शायद दस बारह कोस दूर जाने के बाद हम उजाड़ सी जगह पहुँच गए , उसने एक चाबी थी मैंने बड़ा सा दरवाजा खोला और गाड़ी अन्दर ले ली, इस चारदीवारी में पांच छह कमरे थे, एक छोटा बगीचा था .
 
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